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जाम लाखो धूरारो
यह गाथा बहुत कम लोग जानते है।
जाम लाखो धुरारो (श्री कृष्ण के वंश में) जाम लखियार के बाद उनका बेटा जाम लखपत आया जो बाद में लाखो धुरारो के नाम से जाना जाने लगा। वह बहुत शरीर से लंबा ऊंचा और बहुत मजबूत आदमी था। इसके अलावा वह तलवार चलाने और निशानेबाजी में भी माहिर थे। प्रातःकाल में श्यामकर्ण नाम के घोड़े पर सवार होकर, प्रतिदिन शिकार पर जाकर शिकार से लौटते हुए नगर से दो-तीन मील ऊपर एक किनारा है जिसे आज भी घोड़ा घोड़ी के नाम से जाना जाता है। वहां से घोड़ा बाढ़ में भाग गया और एक बड़ा पेड़ सड़क पर गिर गया। चूंकि घोड़ा सड़क पर चल रहा था, जब घोड़ा पेड़ से नीचे आ रहा था, लाखों धुररो अपने दोनों हाथों से पेड़ की शाखा से चिपक गए, घोड़े को काठी से उठा लिया और घोड़े को उठा लिया। उन्होंने एक तहखाना (झूल) खाया और अपने हाथों को वापस सड़क पर छोड़ दिया। इस प्रकार लाखा नित्य के अनुसार समस्त अस्त्र-शस्त्रों से युक्त हो गया और घोड़े के सिर की मजबूत शाखाओं को कवच और कवच के साथ दौड़ता देख लोग चकित रह गए। जब कबीरवड़ उसी आवाज के साथ झूल रहा था, जब वह कर्कश आवाज कर रहा था,तो उसकी दहाड़ दूर तक सुनाई देती थी और वह बारिश की दहाड़ को समझ लेता था और मोर बोल देते थे। केशरी सिंह की दहाड़ दूर दूर तक सुनाई दी, लाखा की दहाड़ दूर दूर तक सुनाई दी और लोग उन्हें 'लाखो धुरारो' कहने लगे। जब वे जाम लाख घुरारो नागरासे की गद्दी पर बैठे, तब वे 70 वर्ष के थे। कुछ वर्षों के बाद, लाखों लोगों ने राज्य की बागडोर संभाली।उस समय खेरगढ़ के राजा सूर्यसिंह गोहिल की रखैल चंद्र कुंवरबा जाम लाखा घुरारा से संबंधित थे। क्योंकि चंद्रकुंवरबा नव नवचंद्री भैंस के सहारे किले की दीवार की सीढ़ियां चढ़ते थे। यह देख भाभी ने महनू से कहा कि 'चंद्रकुंवरबा को सिंधपति लाखा घुरारा से शादी करनी है क्योंकि लाखों घुरारो एक घोड़े और एक महिला को भैंस की तरह उठाते हैं।' जाम लाखा घुरारा की दहाड़ और सवज की दहाड़ को देखकर, वह कनौज के चावड़ा से ईर्ष्या करने लगा और काबुल सुल्तानशाह के सुल्तान को ले गया और एक बड़ी सेना के साथ सिंध पर चढ़ाई की लेकिन 121 साल की उम्र में लाखा धुरारा ने उन दोनों को हरा दिया और जीत हासिल की लड़ाई। जाम लाखा धुरारा ने 130 साल का लंबा जीवन जिया और सिंध में समवंश (जडेजा) का प्रसार किया।
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JAUNPUR-BHOJPUR WAR: TRIUMPH OF UJJAINIYA RAJPUTS • The Jaunpur-Bhojpur War: An Introduction The annals of history are replete with tales of valor, resistance, and the indomitable spirit of those who stand up against oppression. One such chapter in India's…
Jai Jagannath Prabhu ??
श्रीमद्भागवत आदि में वैदिक और तान्त्रिक दोनों पद्धति से उपासना का समर्थन मिलता है, और पांचरात्र में तो तत्वतः वैदिक और स्वरूपतः तान्त्रिक मत का अद्भुत समन्वय भी दिखता है। महाभारत का तो यह भी मत है कि वेदचतुष्टयी एवं सांख्य योग के समावेश के कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा। यजुर्वेद से इसका संगति तो अनेकों प्रमाणों से सिद्ध है ही, मांत्रिक प्रयोगों के भी वैदिक सन्दर्भ व्यापकता से द्रष्टव्य है। श्रीनृसिंह भगवान् का द्वात्रिंशदक्षरी मंत्र उपनिषदों में, पुराणों में एवं पांचरात्र ग्रंथों में भी यथावत् वर्णित है।
सर्वं आथर्वणो वेदो मथितस्तु शनै: शनै:।
मथ्यमानात् ततस्तस्माद्दध्नो घृतमिवोद्धृतः॥
(अहिर्बुध्न्य संहिता)
भगवान् अहिर्बुध्न्य ने (त्रेतायुग में दस हज़ार वर्षों तक तपस्या करके) अथर्ववेद का मंथन किया और दही से घी की भांति, सुदर्शन मंत्र को प्राप्त किया।
भगवान् श्रीकृष्ण ने तो गीता में कर्म, भक्ति, ज्ञान और इन तीनों में निहित योग, इन सबको अपनी प्राप्ति का माध्यम बताया है। इसमें से ज्ञानबल के आश्रय से भगवान् आद्यशंकराचार्य ने, भक्तिबल से आश्रय से भगवान् आद्यरामानुजाचार्य ने, कर्मबल से न्याय एवं मीमांसा के अनुयायियों ने तथा योगबल से भगवान् गोरक्षनाथ आदि ने कल्याण के मार्ग का उपदेश किया है। श्रीमद्भागवत में भी दिव्यवाक्य है,
योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयो विधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्॥
इस उक्ति में कर्म, ज्ञान और भक्ति को योगमार्ग के ही अंतर्गत सम्मिलित रखा गया है, इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण भी श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म'योग', ज्ञान'योग', भक्ति'योग' का उपदेश करके कहते हैं, तस्माद्योगी भवार्जुन।
हालांकि इसमें भी प्रवृत्ति मार्ग की ओर ले जाने वाला कर्म, सिद्धियों की ओर ले जाने वाला योग, अपेक्षा से युक्त भक्ति को पाशतुल्य ही बताया गया है।
शृणुष्व प्रथमं कर्म द्विविधं तदिहोच्यते।
एकं प्रवर्तकं प्रोक्तं निवर्तकमथापरम्॥
प्रवर्तकं च स्वर्गादिफलसाधनमुच्यते।
निवर्तकाख्यं देवर्षे विज्ञेयं मोक्षसाधनम्॥
(अहिर्बुध्न्य संहिता)
दो प्रकार के कर्म कहे गए हैं, प्रथम प्रवर्तक, दूसरा निवर्तक। स्वर्गादि फल उत्पन्न करने वाला साधन प्रवर्तक कर्म है, और मोक्ष का साधनभूत निवर्तक कर्म कहा जाता है, ऐसा समझना चाहिए।
तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, विष्णुपुराण)
किन्तु ध्यातव्य है, कि कर्म वही है, जो बन्धन का कारण न हो। विद्या वही है जो मोक्ष की हेतु बने। इसके अतिरिक्त शेष सभी कर्म तो मात्र परिश्रम हैं, और शेष विद्याएं केवल कला-कौशल हैं। मोक्ष की इच्छा भगवान् नारायण से ही करनी चाहिए, ऐसा पद्मपुराण का वचन है, मोक्षमिच्छेज्जनार्दनात्। और इस उपलब्धि हेतु कैंकर्यभाव का अवलम्बन अत्यंत आवश्यक है। कैंकर्यभाव भाव की प्राप्ति में वैदिक मत हो, तांत्रिक मत हो, भक्तिमार्ग हो, ज्ञानबल का आश्रय लेना पड़े, चाहे माध्यम जो भी हो किन्तु उद्देश्य उसका प्रपत्तिभाव की प्राप्ति ही होना चाहिए, यही सभी वैष्णवों का परम-कर्तव्य है।
श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru
जो काम्य कर्मों की फलेप्सा से मुक्त हो चुके हैं, जिनमें केवल भक्ति ही प्रधानता से विद्यमान् है, वे पुण्यकर्म, स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति अथवा सांसारिक वैभव की इच्छा स्वभावतः ही नहीं रखते हैं। जो केवल भगवान् की सन्निधि की ही कामना करते हैं, उन्हें निर्गुण दिव्यशास्त्र की शरण ग्रहण करनी चाहिए, शेष भौतिकतावादी जन स्वकाम के अनुसार गुणात्मक तन्त्रों के अनुसार कर्म करने के लिए अधिकृत हैं। अपने अपने लक्ष्य की प्राप्ति कराने में सभी शास्त्र समर्थ हैं, इसीलिए राजस एवं तामस शास्त्रों की प्रामाणिकता में अंशमात्र भी सन्देह नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे भी योगबल से युक्त ऋषियों के द्वारा लोककल्याण की भावना से ही प्रणीत हैं।
तीनों प्रकार के शास्त्र प्रमाणरूप हैं, जिनमें सात्विक शास्त्र को नागर, राजस को द्राविड एवं तामस को वेसर भी कहा जाता है।
स्यान्नागरद्राविडवेसरं च क्रमेण वै सत्वरजस्तमांसि॥
(श्रीपाञ्चरात्ररक्षा)
जैसे दार्शनिक दृष्टि से विषयों एवं तत्सम्बन्धी गुणों को उत्तम, मध्यम एवं अधम श्रेणी में बांटा गया है, वैसे ही शास्त्रों में यह केवल श्रेणीभेद ही समझना चाहिए। पौरुषशास्त्रों में भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा एवं करणापाटव, ये चार दोष होते हैं, इसीलिए वे स्वाभाविक रूप से अप्रामाणिक माने जाते हैं। उन्हें अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए वेद-स्मृति आदि प्रामाणिक ग्रंथों का आश्रय लेना पड़ता है, तभी उनकी प्रतिष्ठा हो पाती है। पौरुषशास्त्र ही अप्रामाणिक कहे गए हैं, किन्तु वेदादिसम्मत पौरुषशास्त्र ग्राह्य हैं, उनके वेदविरुद्ध अंश ग्राह्य नहीं हैं। इसी प्रकार से सात्विकादि शास्त्रों की गति एवं तारतम्यता जानकर स्वकर्म में प्रवृत्ति समझनी चाहिए।
चूंकि पूर्व में बताया जा चुका कि सम्पूर्ण पांचरात्र शास्त्रों के वक्ता स्वयं भगवान् नारायण (चतुर्व्यूह में वासुदेव, संकर्षण आदि) ही हैं, साथ ही वैखानस ग्रंथों के उपदेष्टा ब्रह्मारूपी विखना मुनि हैं, तो इन शास्त्रों में पुरुषगत दोषों का संस्पृष्ट होना सम्भव नहीं हैं। स्वप्रोक्त शास्त्रों में श्रीभगवान् के द्वारा ही ऋषियों को भी परम्परागत अधिकार प्राप्त हुआ है। जैसे वेद के नित्य एवं अनंत होने पर भी सूत्र, मंत्र आदि के रूप में उनके प्राकट्य अथवा विस्तार का निमित्त ऋषियों को बनाया गया है, इससे वेदों में पुरुषगत दोष लिप्त नहीं हो जाते, वैसे ही रहस्याम्नाय एकायन वेदोक्त पांचरात्र आदि के ग्रंथों के नित्य एवं अनंत होने पर भी ऋषिजनों के द्वारा मात्र उसका प्राकट्य अथवा विस्तार हुआ है, इससे उनमें पुरुषगत दोषों का लिप्त होने की धारणा समीचीन नहीं है।
श्री वेदान्तदेशिक स्वामी की बहुत प्रसिद्ध उक्ति है,
कलौ कृतयुगं तस्य कलिस्तस्य कृते युगे।
यस्य चेतसि गोविन्दो हृदये यस्य नाच्युतः॥
जिसके चित्त में गोविन्द हैं, उसके लिए कलियुग में भी सत्ययुग है, और जिसके हृदय में अच्युत नहीं हैं, उनके लिए सत्ययुग भी कलियुग के ही समान है।
इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए निरंतर सिद्धांतवाक्यों पर आचरण करने की नितांत आवश्यकता होती है। शास्त्रों में तीन प्रकार के वाक्यों का वर्णन है - दिव्य, मुनिभाषित और पौरुष। जो वाक्य अनेकार्थ को देने में समर्थ हैं, संशयरहित हैं, सूत्रात्मक हैं, निर्मल, नित्य, आदेशात्मक एवं मोक्षदायी हैं, ऐसे वाक्यों को नारायणप्रोक्त, शब्दब्रह्मवत् दिव्यवाक्य कहते हैं। मुनिभाषित वाक्य वह है, जो दिव्य एवं वेदोक्त वाक्यों का प्रशंसक हो, सिद्धांतों का नियामक हो, सबके लिए कल्याणकारी हो, गूढार्थ के प्रकाशन में समर्थ हो एवं प्रसङ्ग के अनुकूल हो। जिस वाक्य में अर्थ का अनर्थ किया गया हो, पूर्वापर से जिसका सम्बन्ध स्पष्ट न हो, जो मोहित करने वाला, संकुचित अर्थ को लिए हुए हो, दिव्य एवं मुनिभाषित वाक्यों के साथ संगति न रखता हो, उसे पौरुष वाक्य कहते हैं, जो नरक की प्राप्ति कराने वाला होने से त्याज्य है। अतएव वाल्मीकीय रामायण में जाबालि के नास्तिकपरक वाक्य शास्त्रांश होने पर भी अग्राह्य हैं। किंतु,
प्रसिद्धार्थानुवादं यत् संगतार्थं विलक्षणम्।
अपि चेत् पौरुषं वाक्यं ग्राह्यं तन्मुनिवाक्यवत्॥
जो पौरुष वाक्य श्रुतिस्मृति के मान्य अनुवादक हैं, उनके साथ संगति रखते हैं, विलक्षण हैं, उन्हें मुनिभाषित वाक्यों के ही समान आदरपूर्वक ग्रहण करना चाहिए।
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