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1. Portrait of Raja Jagat Singh …
  1. Portrait of Raja Jagat Singh Pathania of Nurpur (1618-46)

The one who is known for his intellectual prowess and valiant spirit. He secured the third-highest position among Rajput mansabdars, trailing Jai Singh Kachwaha of Jaipur and The King of Orchha.

  1. Raja Mandhata Singh Pathania of Nurpur, Grandson of Raja Jagat Singh Pathania, Seated in a yogi position.

c. 1690-1700. Pahari, Nurpur, late 17th Century.

4 months ago

Jai Jagannath Prabhu ??

4 months, 4 weeks ago
5 months ago

हिन्दुओं की आर्थिक दुर्दशा!
-श्री त्रयम्बकेश्वरचैतन्य जी

5 months ago

श्रीमद्भागवत आदि में वैदिक और तान्त्रिक दोनों पद्धति से उपासना का समर्थन मिलता है, और पांचरात्र में तो तत्वतः वैदिक और स्वरूपतः तान्त्रिक मत का अद्भुत समन्वय भी दिखता है। महाभारत का तो यह भी मत है कि वेदचतुष्टयी एवं सांख्य योग के समावेश के कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा। यजुर्वेद से इसका संगति तो अनेकों प्रमाणों से सिद्ध है ही, मांत्रिक प्रयोगों के भी वैदिक सन्दर्भ व्यापकता से द्रष्टव्य है। श्रीनृसिंह भगवान् का द्वात्रिंशदक्षरी मंत्र उपनिषदों में, पुराणों में एवं पांचरात्र ग्रंथों में भी यथावत् वर्णित है।

सर्वं आथर्वणो वेदो मथितस्तु शनै: शनै:।
मथ्यमानात् ततस्तस्माद्दध्नो घृतमिवोद्धृतः॥
(अहिर्बुध्न्य संहिता)

भगवान् अहिर्बुध्न्य ने (त्रेतायुग में दस हज़ार वर्षों तक तपस्या करके) अथर्ववेद का मंथन किया और दही से घी की भांति, सुदर्शन मंत्र को प्राप्त किया।

भगवान् श्रीकृष्ण ने तो गीता में कर्म, भक्ति, ज्ञान और इन तीनों में निहित योग, इन सबको अपनी प्राप्ति का माध्यम बताया है। इसमें से ज्ञानबल के आश्रय से भगवान् आद्यशंकराचार्य ने, भक्तिबल से आश्रय से भगवान् आद्यरामानुजाचार्य ने, कर्मबल से न्याय एवं मीमांसा के अनुयायियों ने तथा योगबल से भगवान् गोरक्षनाथ आदि ने कल्याण के मार्ग का उपदेश किया है। श्रीमद्भागवत में भी दिव्यवाक्य है,

योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयो विधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्॥

इस उक्ति में कर्म, ज्ञान और भक्ति को योगमार्ग के ही अंतर्गत सम्मिलित रखा गया है, इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण भी श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म'योग', ज्ञान'योग', भक्ति'योग' का उपदेश करके कहते हैं, तस्माद्योगी भवार्जुन।

हालांकि इसमें भी प्रवृत्ति मार्ग की ओर ले जाने वाला कर्म, सिद्धियों की ओर ले जाने वाला योग, अपेक्षा से युक्त भक्ति को पाशतुल्य ही बताया गया है।

शृणुष्व प्रथमं कर्म द्विविधं तदिहोच्यते।
एकं प्रवर्तकं प्रोक्तं निवर्तकमथापरम्॥
प्रवर्तकं च स्वर्गादिफलसाधनमुच्यते।
निवर्तकाख्यं देवर्षे विज्ञेयं मोक्षसाधनम्॥
(अहिर्बुध्न्य संहिता)

दो प्रकार के कर्म कहे गए हैं, प्रथम प्रवर्तक, दूसरा निवर्तक। स्वर्गादि फल उत्पन्न करने वाला साधन प्रवर्तक कर्म है, और मोक्ष का साधनभूत निवर्तक कर्म कहा जाता है, ऐसा समझना चाहिए।

तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, विष्णुपुराण)

किन्तु ध्यातव्य है, कि कर्म वही है, जो बन्धन का कारण न हो। विद्या वही है जो मोक्ष की हेतु बने। इसके अतिरिक्त शेष सभी कर्म तो मात्र परिश्रम हैं, और शेष विद्याएं केवल कला-कौशल हैं। मोक्ष की इच्छा भगवान् नारायण से ही करनी चाहिए, ऐसा पद्मपुराण का वचन है, मोक्षमिच्छेज्जनार्दनात्। और इस उपलब्धि हेतु कैंकर्यभाव का अवलम्बन अत्यंत आवश्यक है। कैंकर्यभाव भाव की प्राप्ति में वैदिक मत हो, तांत्रिक मत हो, भक्तिमार्ग हो, ज्ञानबल का आश्रय लेना पड़े, चाहे माध्यम जो भी हो किन्तु उद्देश्य उसका प्रपत्तिभाव की प्राप्ति ही होना चाहिए, यही सभी वैष्णवों का परम-कर्तव्य है।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru

5 months ago

जो काम्य कर्मों की फलेप्सा से मुक्त हो चुके हैं, जिनमें केवल भक्ति ही प्रधानता से विद्यमान् है, वे पुण्यकर्म, स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति अथवा सांसारिक वैभव की इच्छा स्वभावतः ही नहीं रखते हैं। जो केवल भगवान् की सन्निधि की ही कामना करते हैं, उन्हें निर्गुण दिव्यशास्त्र की शरण ग्रहण करनी चाहिए, शेष भौतिकतावादी जन स्वकाम के अनुसार गुणात्मक तन्त्रों के अनुसार कर्म करने के लिए अधिकृत हैं। अपने अपने लक्ष्य की प्राप्ति कराने में सभी शास्त्र समर्थ हैं, इसीलिए राजस एवं तामस शास्त्रों की प्रामाणिकता में अंशमात्र भी सन्देह नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे भी योगबल से युक्त ऋषियों के द्वारा लोककल्याण की भावना से ही प्रणीत हैं।

तीनों प्रकार के शास्त्र प्रमाणरूप हैं, जिनमें सात्विक शास्त्र को नागर, राजस को द्राविड एवं तामस को वेसर भी कहा जाता है।

स्यान्नागरद्राविडवेसरं च क्रमेण वै सत्वरजस्तमांसि॥
(श्रीपाञ्चरात्ररक्षा)

जैसे दार्शनिक दृष्टि से विषयों एवं तत्सम्बन्धी गुणों को उत्तम, मध्यम एवं अधम श्रेणी में बांटा गया है, वैसे ही शास्त्रों में यह केवल श्रेणीभेद ही समझना चाहिए। पौरुषशास्त्रों में भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा एवं करणापाटव, ये चार दोष होते हैं, इसीलिए वे स्वाभाविक रूप से अप्रामाणिक माने जाते हैं। उन्हें अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए वेद-स्मृति आदि प्रामाणिक ग्रंथों का आश्रय लेना पड़ता है, तभी उनकी प्रतिष्ठा हो पाती है। पौरुषशास्त्र ही अप्रामाणिक कहे गए हैं, किन्तु वेदादिसम्मत पौरुषशास्त्र ग्राह्य हैं, उनके वेदविरुद्ध अंश ग्राह्य नहीं हैं। इसी प्रकार से सात्विकादि शास्त्रों की गति एवं तारतम्यता जानकर स्वकर्म में प्रवृत्ति समझनी चाहिए।

चूंकि पूर्व में बताया जा चुका कि सम्पूर्ण पांचरात्र शास्त्रों के वक्ता स्वयं भगवान् नारायण (चतुर्व्यूह में वासुदेव, संकर्षण आदि) ही हैं, साथ ही वैखानस ग्रंथों के उपदेष्टा ब्रह्मारूपी विखना मुनि हैं, तो इन शास्त्रों में पुरुषगत दोषों का संस्पृष्ट होना सम्भव नहीं हैं। स्वप्रोक्त शास्त्रों में श्रीभगवान् के द्वारा ही ऋषियों को भी परम्परागत अधिकार प्राप्त हुआ है। जैसे वेद के नित्य एवं अनंत होने पर भी सूत्र, मंत्र आदि के रूप में उनके प्राकट्य अथवा विस्तार का निमित्त ऋषियों को बनाया गया है, इससे वेदों में पुरुषगत दोष लिप्त नहीं हो जाते, वैसे ही रहस्याम्नाय एकायन वेदोक्त पांचरात्र आदि के ग्रंथों के नित्य एवं अनंत होने पर भी ऋषिजनों के द्वारा मात्र उसका प्राकट्य अथवा विस्तार हुआ है, इससे उनमें पुरुषगत दोषों का लिप्त होने की धारणा समीचीन नहीं है।

श्री वेदान्तदेशिक स्वामी की बहुत प्रसिद्ध उक्ति है,

कलौ कृतयुगं तस्य कलिस्तस्य कृते युगे।
यस्य चेतसि गोविन्दो हृदये यस्य नाच्युतः॥

जिसके चित्त में गोविन्द हैं, उसके लिए कलियुग में भी सत्ययुग है, और जिसके हृदय में अच्युत नहीं हैं, उनके लिए सत्ययुग भी कलियुग के ही समान है।

इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए निरंतर सिद्धांतवाक्यों पर आचरण करने की नितांत आवश्यकता होती है। शास्त्रों में तीन प्रकार के वाक्यों का वर्णन है - दिव्य, मुनिभाषित और पौरुष। जो वाक्य अनेकार्थ को देने में समर्थ हैं, संशयरहित हैं, सूत्रात्मक हैं, निर्मल, नित्य, आदेशात्मक एवं मोक्षदायी हैं, ऐसे वाक्यों को नारायणप्रोक्त, शब्दब्रह्मवत् दिव्यवाक्य कहते हैं। मुनिभाषित वाक्य वह है, जो दिव्य एवं वेदोक्त वाक्यों का प्रशंसक हो, सिद्धांतों का नियामक हो, सबके लिए कल्याणकारी हो, गूढार्थ के प्रकाशन में समर्थ हो एवं प्रसङ्ग के अनुकूल हो। जिस वाक्य में अर्थ का अनर्थ किया गया हो, पूर्वापर से जिसका सम्बन्ध स्पष्ट न हो, जो मोहित करने वाला, संकुचित अर्थ को लिए हुए हो, दिव्य एवं मुनिभाषित वाक्यों के साथ संगति न रखता हो, उसे पौरुष वाक्य कहते हैं, जो नरक की प्राप्ति कराने वाला होने से त्याज्य है। अतएव वाल्मीकीय रामायण में जाबालि के नास्तिकपरक वाक्य शास्त्रांश होने पर भी अग्राह्य हैं। किंतु,

प्रसिद्धार्थानुवादं यत् संगतार्थं विलक्षणम्।
अपि चेत् पौरुषं वाक्यं ग्राह्यं तन्मुनिवाक्यवत्॥

जो पौरुष वाक्य श्रुतिस्मृति के मान्य अनुवादक हैं, उनके साथ संगति रखते हैं, विलक्षण हैं, उन्हें मुनिभाषित वाक्यों के ही समान आदरपूर्वक ग्रहण करना चाहिए।

5 months ago

सांख्यं योग: पांचरात्रं वेदाः पाशुपतं तथा।
ज्ञानान्येतानि राजर्षे विद्धि नानामतानि वै॥
पांचरात्रविदो ये तु यथाक्रमपरा नृप।
एकांतभावोपगतास्ते हरिं प्रविशन्ति वै॥
(महाभारत, शांतिपर्व)

वेद, सांख्य, योग, पाशुपत तथा पांचरात्र में सन्निहित ज्ञानों में विरोधाभास नहीं, अपितु सैद्धांतिक सामंजस्य है। जो सप्तर्षियों के द्वारा प्रणीत पांचरात्र के ज्ञाता हैं तथा तदनुसार अनन्य शरणागत सेवापरायण भगवद्भक्त हैं, वे उन श्रीहरि में ही लीन हो जाते हैं।

पांचरात्र संहिताओं में जो चतुर्व्यूह का वर्णन है, वह भी इतिहास, श्रुति एवं पुराणसम्मत ही हैं।

यो वासुदेवो भगवान् क्षेत्रज्ञो निर्गुणात्मकः।
ज्ञेयः स एव राजेन्द्र: जीवः संकर्षण: प्रभु:॥
संकर्षणाच्च प्रद्युम्नो मनोभूत: स उच्यते।
प्रद्युम्नाद्योऽनिरुद्धस्तु सोऽहंकार: स ईश्वर:॥
(महाभारत, शांतिपर्व)

रोहिणीतनयो विश्व अक्षराक्षरसम्भवः।
तैजसात्मक प्रद्युम्न उकाराक्षरसम्भवः॥
प्राज्ञात्मकोऽनिरुद्धोऽसौ मकराक्षरसम्भवः।
अर्द्धमात्रात्मकः कृष्णो यस्मिन् विश्वं प्रतिष्ठितम्॥
(गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद्)

वासुदेवः संकर्षण: प्रद्युम्नः पुरुष: स्वयम्।
अनिरुद्ध इति ब्रह्मन् मूर्तिव्यूहोऽभिधीयते॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण)

ब्रह्मसूत्रभाष्य में भगवान् शंकराचार्य ने अन्यान्य आगमों को किसी न किसी दृष्टि से अप्रामाणिक घोषित करने की स्थिति रखी किन्तु वैखानस के विषय में उन्होंने भी मौन धारण किया है। हां, पांचरात्र के प्रामाण्य को उन्होंने पूरे अंशों में स्वीकार नहीं किया है, जबकि छान्दोग्य श्रुति में "वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां" आदि उक्ति से एकायन को स्वीकार किया गया है। एतदर्थ कालांतर में श्रीस्वामी वेदान्तदेशिक जी के द्वारा पांचरात्ररक्षा आदि ग्रंथों का प्रणयन अनिवार्य हो गया। श्री यामुनाचार्य ने भी आगमप्रामाण्य जी रचना इसी उद्देश्य से की थी।

वेदों के विद्वान् जानते हैं कि वेदों को रहस्य के साथ पढ़ने की बात अनिवार्य है। महाभारत कहता है, सर्वे वेदाः सरहस्या हि पुत्र:। यद्यपि काठक गृह्यसूत्र में उपनिषदं रहस्यशास्त्रं, इस उक्ति से उपनिषदों को रहस्य शब्द से लक्षित किया गया है किन्तु चारों वेदों की चार भिन्न आम्नाय परम्परा भी है, इसीलिए एकायन को रहस्याम्नाय की संज्ञा प्राप्त है, यह भी ध्यान में रखना चाहिए।

श्रुत्वैवं प्रथमं शास्त्रं रहस्याम्नायसंज्ञितम्।
(पारमेश्वर संहिता)

आद्यमेकायनं वेदं रहस्याम्नायसंज्ञितम्।
(ईश्वर संहिता)

श्रीमद्भगवद्गीता में साधकों की तीन प्रकार की निष्ठा का वर्णन है, सात्विक, राजस एवं तामस। ऐसे ही आगमशास्त्र में भी इन तीन गुणों से आवृत्त शास्त्रों का विभाजन किया गया है। जो ग्रंथ सीधे भगवान के द्वारा उपदिष्ट हुए, अथवा तदंश ब्रह्मा, रुद्र आदि के द्वारा उपदिष्ट हुए, उन्हें दिव्यशास्त्र कहा जाता है। इसके अनन्तर साक्षात् भगवान् से सुने हुए अर्थ को ही यथावत् निबंधित किये गए शास्त्र को सात्विक शास्त्र कहते हैं। पुनः भगवान् से श्रुत अर्थ के किसी विशेष भाग या दृष्टिकोण को अपने चिंतन अथवा योग्यता से पुनः परिभाषित करके प्रणीत शास्त्र की राजस संज्ञा है। केवल योगबल का आश्रय लेकर लोककल्याण की भावना से वेदसम्मत सूत्रों से युक्त शास्त्र का प्रणयन यदि किया जाए तो वह तामस शास्त्र कहलाता है। इस प्रकार मुनिभाषित शास्त्रों की तीन श्रेणियां निश्चित की गई है, ऐसा शांडिल्य-सनक संवाद से सिद्ध है। योगबल से रहित, वेदविरुद्ध कल्पित मतों का पोषण करने वाले शास्त्र अप्रामाणिक एवं त्याज्य माने गए हैं।

मुनिभाषितेषु त्रिषु शास्त्रेषु उत्कृष्टमध्यमाधमगुण संज्ञा निर्दिष्टेषु अपकृष्टगुणसंज्ञितशास्त्रप्रवृत्तिस्थाने तत्परित्यागेनापि उत्कृष्टगुणसंज्ञितशास्त्रेण पूजाद्यं सिद्धिदम्। उत्कृष्टगुणसंज्ञितशास्त्रप्रवृत्तिस्थाने तद्विपरीतेन शास्त्रेण पूजनादिकं न कर्तव्यम्॥
(श्रीपाञ्चरात्ररक्षा)

तामसी शास्त्रों का आश्रय लेने वाले अपनी परम्परा को छोड़कर राजस शास्त्र को अपना सकते हैं। राजसी शास्त्रों का आश्रय लेने वाले भी अपनी परम्परा को छोड़कर सात्विक शास्त्र को अपना सकते हैं। सात्विक शास्त्र का आश्रय लेने वाले भी अपनी परम्परा को छोड़कर निष्काम दिव्यशास्त्र को अपना सकते हैं, किन्तु अपनी परम्परा से हीन परम्परा का अनुसरण करना कदापि कल्याणकारी नहीं है।

5 months ago

आगमशास्त्र की प्रामाणिकता सनातनी समाज के लिए सर्वमान्य है। इसके विस्तृत स्वरूप के अंतर्गत सहस्रों ग्रंथ हैं जो अलग अलग कालखण्ड में भगवान् शिव, विष्णु, सूर्य, भगवती दुर्गा आदि के द्वारा अपने भक्तों एवं योग्य जिज्ञासुओं के प्रति प्रकाशित किये गए हैं। इन ग्रंथों के नाम के आगे आगम, तन्त्र, संहिता, कल्प, वरिवस्या आदि शब्दों का प्रयोग होता आया है। श्री वैष्णवागम परम्परा में भी दिव्य तन्त्रमत का प्रकाशन ऋषियों के द्वारा उपदेष्टा अथवा श्रोता के भाव से हुआ है। इसमें एक तो भगवान् नारायण के पुत्ररूपी ऋषिप्रवर विखना, जिन्हें तात्विक दृष्टि रखने वाले साधकगण ब्रह्मा के रूप में भी बताते हैं, के द्वारा प्रवर्तित वैखानस अथवा औखेय मत है (जिसका केंद्र वर्तमान में श्री तिरुपति दिव्यदेश है), जिसका विस्तार कालांतर में महर्षि अत्रि, कश्यप, भृगु एवं मरीचि ने किया।

आदिकाले तु भगवान् ब्रह्मा तु विखना मुनिः।
यजुश्शाखानुसारेण चक्रे सूत्रं महत्तरम्॥
(वैखानसविजयम्)

पूर्वकाल में ब्रह्मा जी विखना मुनि के नाम से हुए, जिन्होंने यजुर्वेद की शाखा के अनुसार महान् सूत्रों का प्रणयन किया।

दूसरी परम्परा को पांचरात्र कहते हैं, जिसके उद्गाता स्वयं चतुर्व्यूहात्मक भगवान् नारायण एवं संकर्षण हैं, (जिसका केंद्र वर्तमान में श्रीरङ्गम् दिव्यदेश है), जिसका विस्तार कालांतर में देवर्षि नारद, शांडिल्य, मार्कण्डेय आदि ने किया।

पाञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य वक्ता नारायण: स्वयम्॥

सम्पूर्ण पांचरात्र के उपदेष्टा स्वयं भगवान् नारायण ही हैं।

आदिगुरु भगवान् शंकराचार्य ने अपने शास्त्रसिद्ध ग्रंथों में तंत्रमत को व्यापक स्थान दिया है एवं उसके संवर्धन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण उपक्रम किया, किन्तु उनकी कुछ उक्तियों में पांचरात्र मत के प्रति किञ्चित् अश्रद्धा परिलक्षित होती है, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है तथा शंकराचार्य जी की दृष्टि में पांचरात्र मत को अवैदिक इत्यादि संज्ञाओं से लक्षित किया गया है। शांकर मत के कुछ वरिष्ठ विशेषज्ञ यह भी मानते हैं केवलाद्वैत के प्रबल संरक्षक आद्यशंकराचार्य जी पांचरात्र के विरोधी न होकर मात्र उसके द्वैतपरक अर्थ के विरोधी थे, अतः उन्होंने पांचरात्र मत से भी अद्वैतभाव का पोषण किया है। पांचरात्र एवं वैखानस, दोनों ही मत नारायणपरक उपासना को केंद्र में रखते हैं किंतु फिर भी वैखानस में प्रवृत्तिमार्ग एवं पांचरात्र में निवृत्तिमार्ग की ओर विशेष आकर्षण दिखाई पड़ता है।

पांचरात्र मत को अवैदिक मानने वालों के मत का खण्डन अनेकों ग्रंथों में प्राप्त होता है, यथा

वेदमेकायनं नाम वेदानां शिरसि स्थितम्।
तदर्थकं पाञ्चरात्रं मोक्षदं तत्क्रियावताम्॥
(श्रीकृष्ण संहिता)

सभी वेदों के शिरोमणि के रूप में यह एकायन नामक वेद (अथवा वैदिक शाखा) है, जिसके अर्थ का प्राकट्य मोक्षदायी पांचरात्र के रूप में है।

वैखानस मत के गृह्यसूत्र, श्रौतसूत्र आदि भी प्राप्त होते हैं जिससे इनकी वेदसम्मत परम्परा सिद्ध होती है। एकायन शाखा को यजुर्वेदीय परम्परा का अंतर्गत मानना समीचीन है, क्योंकि चरणव्यूह में वर्णित कृष्ण यजुर्वेद की चार प्रधान शाखाओं में औखेय (वैखानस) का नाम स्पष्ट है। इस प्रकार से वैखानस मत कृष्णयजुर्वेदीय शाखा से सम्बंधित हुआ। इसके अनन्तर पांचरात्र मत को शुक्लयजुर्वेदीय शाखा से सम्बंधित मानना भी समीचीन है, क्योंकि

काण्वीं शाखामधीयानान् वेदवेदान्तपारगान्।
संस्कृत्य दीक्षया सम्यक् सात्वताद्युक्तमार्गत:॥
(ईश्वर संहिता)

वेद-वेदान्त के विशेषज्ञ होकर काण्वी शाखा में अधीत, सम्यक् वैष्णव दीक्षा से संस्कारित होकर ही मनुष्य सात्वत धर्म के योगमार्ग को प्राप्त कर सकता है।

"सात्वत धर्म" से यहां पांचरात्र मत का ही बोध होता है, क्योंकि

सत् सत्वम् - ब्रह्म तद्वन्तः - सात्वन्तः अथवा सात्विका: ब्रह्मविद: तेषामिदं कर्म शास्त्रं वा - सात्वतं तत्कुर्वाणः आचक्षाणो वा सात्विका: वा सात्वतः

इस भाव से विचार करने पर ब्रह्मनिष्ठ जनों का आचरण ही सात्वत शास्त्र या सात्वत धर्म है। इस धर्म के अंतर्गत वर्णित तन्त्रोक्त विधि को वैदिक एकायन, जो स्वयं पांचरात्र ही है, उनका सारभूत बताया गया है।

एकायनश्रुते: सारभूतं सात्वत तन्त्रमिति वर्तते।

महाभारत के शांतिपर्व में चित्रशिखण्डी के द्वारा कल्प के आरम्भ में ही ऋक्, यजुष्, साम एवं अथर्ववेद के मन्त्रों से अनुमोदित धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि के लिए तद्वत् स्वर्ग तथा मर्त्यलोक में प्रचलित विविध मर्यादारूप पंचविध ज्ञान से समन्वित शतसाहस्त्री पांचरात्र संहिता की रचना की।

तत्र धर्मार्थकामा हि मोक्षा: पश्चाश्च कीर्तितः।
मर्यादा विविधाश्चैव दिवि भूमौ च संस्थिता:॥
(महाभारत, शांतिपर्व)

(चित्रशिखण्डी एक समूह का नाम है, जिसमें मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं वशिष्ठ हैं। इसमें मनु को मिलाकर ये लोकों को धारण करने वाले अष्टधा प्रकृति कहाते हैं।)

5 months, 2 weeks ago

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