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Mangala Sutta - Very Inspiring discourse for Old Students _English
जागरण 23
आवाज देकर बुलाने की आवश्यकता नहीं है। वे तो इन धर्म-तरंगों के रूप में मेरे साथ हैं ही। बस इसी से मन शांत हुआ और संतुलित प्रशांत चित्त से उस साधक को मैत्री दी तो कुछ मिनिटों में ही वह शांत हो गया। उसका धूजना बंद हो गया। मेरे द्वारा दी गई पहली विपश्यना सफल हुई। गुरुदेव अत्यंत प्रसन्न हुए।
तब से आज तक जब किसी शिविर में धर्म सिखाता हूं तो मुझे मैत्रीपूर्ण तरंगों के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होती है और मैं यह अहसास करता हूं कि मैं तो उनका प्रतिनिधि मात्र हूं। जगह जगह- दुखियारों को धर्म बांट कर उनके शुभ संकल्पों को पूरा करते हुए महज उनकी सेवा कर हा हूं। काम तो उन्हीं का है। बल तो उन्हीं का है!
गुरुदेव के पत्रों में से :-
* तुम भारत में बहुत महान और अपूर्व सेवा का काम कर रहे हो। यह कार्य करते हुए तुम मेरा ही प्रतिनिधित्व कर रहे हो। अतः यह मेरा दायित्व है कि जिन्हें आवश्यकता है उन्हें शुद्ध सत्य धर्म दे सकने के तुम्हारे प्रयत्नों में तुम्हें हर कीमत पर सफलता मिले।
तुम्हारी सफलता मेरी ही सफलता है।..." (१०-१०-६९)
जिस प्रकार सभी विरोधी शक्तियों पर विजय पाने के लिए भगवान बुद्ध को संघर्ष करना पड़ा, इसी प्रकार तुम्हें भी करना है।”
सभी प्राणियों के प्रति और विशेषकर शिविरार्थियों के प्रति मंगल मैत्री देते हुए तुम अपने काम में लगे रहो। यह विश्वास रखो। कि सफलता मिलेगी ही।..."
" सारे संसार में जो परिवर्तन हो रहे हैं, इनसे स्पष्ट है कि ऐसा । दिन आएगा जब कि सभी पारमी संपन्न लोग धर्मचक्र की छत्रछाया में आ जाएंगे।..." (२७-१-७०)
" सम्राट अशोक के साम्राज्य के पश्चात् मज्झिम देश (भारत) में बुद्ध धर्म का ह्रास होने लगा। लगभग २००० वर्ष के अंतराल के पश्चात् तुम पहले व्यक्ति हो, जिसने वहां विपश्यना साधना को पुनर्जागृत किया। इसके व्यावहारिक सुपरिणाम आए हैं। यह देखकर हमारे मन में ऐसा भाव जागना स्वाभाविक है कि हम भगवान का ऋण चुकाने का एक बहुत बड़ा काम कर रहे हैं।. ..." (२८-८-७०)
“जो लोग लंबे अरसे तक लगातार ध्यान करना चाहें उनके लिए एक उपयुक्त स्थान आवश्यक है। भले वह छोटा ही हो, पर वही तुम्हारे धर्म प्रशिक्षण का केन्द्र बने।...' (१९-९-७०)
छोटे भाई गौरीशंकर के नाम गुरुजी का पत्र
* यह देखकर मन में बड़ा उत्साह जागता है कि तुम्हारा भाई सत्य नारायण गोइन्का भारत में सद्धर्म की शिक्षा देने का कितना अच्छा काम कर रहा है। मेरा जी चाहता है कि मैं भी अपना शेष जीवन वहीं उसके साथ बिताऊं, जहां कि सद्धर्म के लिए बहुतं - उपजाऊ धेरती है।..." (१९-६-७०) १९५४
नोट : अंतिम सांस छोड़ने के दो दिन पूर्व गुरुजी ने अपने कुछ अंतरंग साथियों को कहा कि " अब मैंने फैसला कर लिया है कि सदा के लिए बर्मा छोड़ दूंगा और गोइन्का के साथ जाकर रहूंगा।"
और उन्होंने यही किया। अब भी गोइन्का के साथ ही रहते हैं। । सारे शिविर उनकी मंगल मैत्री की छत्रछाया में ही सफल सम्पन्न होते हैं और होते रहेंगे।
धर्मपुत्र,
सत्य नारायण गोयन्का
एक पत्र मँगवा लें। इस आधार पर उन्हें तुरंत पासपोर्ट दे दिया जाएगा। यह केवल औपचारिकता पूरी करने के लिए था। वैसे । तो सरकार भी जानती है कि वे जीविकोपार्जन के लिए विदेश में नौकरी करने नहीं जा रहे।
सयाजी इस सुझाव को स्वीकार कर लेते तो उनका धर्मचारिका पर जाने का स्वप्न सहज ही पूरा हो जाता। वे भारत को बर्मा का ऋण स्वयं चुकाते और विश्वभर के दुखियारों को स्वयं धर्म की अमृतरस बांट सकते। परंतु प्रश्न शील का था। शील के मामले में । वह समझौता नहीं कर सकते थे। वह बार-बार कहा करते थे कि अच्छे से अच्छा उद्देश्य भी बुरे माध्यम से पूरा करने का गलत प्रयत्न नहीं किया जाना चाहिए। उससे सफलता नहीं मिलती। साध्य जितनी उज्ज्वल है, साधन भी उतना ही उज्ज्वल होनी चाहिए। यही शुद्ध धर्म है।
अतः बड़ी कठोरता के साथ उन्होंने इस सुझाव को ठुकरा दिया। नौकरी का झूठा पत्र मँगवा लेना आसान था। परंतु झूठ के आधार पर धर्म कैसे सिखाया जाएगा? अपने चिर अभीप्सित स्वप्नों का विदीर्ण होना उन्हें स्वीकार्य था, पर थोड़ी सी भी झूठ का सहारा लेना नहीं। झूठ झूठ ही है, चाहे जितने अच्छे उद्देश्य के लिए क्यों न हो। ऊ बा खिन झूठ को आधार नहीं बना सकते थे।
वे सदा साथ रहते हैं।
कई वर्षों से गुरुदेव मुझे विपश्यना शिक्षण की ट्रेनिंग दे रहे थे। यद्यपि मुझे इसका रंचमात्र भी भान नहीं था। मैं तो वर्षों तक यही समझता रहा कि मैं महज एक भाषा अनुवादक की तरह उनकी सेवा कर रहा हूं, जिससे कि उनके द्वारा बरमी में दिए गए आदेश भारतीय शिष्य हिंदी में समझ सकें। बहुत वर्षों बाद पता चला कि वे मुझे भावी जिम्मेदारियों के लिए तैय्यार कर रहे हैं।
वह मुझे अपने साथ उत्तरी बर्मा के मांडले और मेम्यो शहरों में शिविर लगाने के लिए ले गए। वहां कोई तपे हुए विपश्यना केन्द्र तो थे नहीं, जहां धर्म की पावन तरंगे मिल सकें। मुझे भारत जाकर स्कूल, धर्मशाला, होटल आदि-आदि कामचलाऊ स्थानों पर ही शिविर लगाने पड़ेंगे, जहां विपश्यना केन्द्रों की धर्म-तरंगे जरा भी नहीं मिलेंगी। मानो इसी की पूर्व ट्रेनिंग देने के लिए साथ ले गए थे। साधना केन्द्र के बाहर विपश्यना शिविर कैसे लगाया जाय, शायद इसका पूर्वाभास कराना चाहते थे।
उत्तरी बर्मा का पहला शिविर मांडले में लगा। इसमें सभी साधक- साधिकाएं हिंदी भाषी भारतीय थे। यकायक गुरूजी ने मुझे आदेश दिया कि सायंकालीन धर्मप्रवचन मैं हूँ और हिंदी में दें। अब लगता है कि वह भी भावी जिम्मेदारियों की तैयारियां करवाने के लिए था। वैसे सार्वजनिक प्रवचन देने का यथेष्ट अनुभव था। परन्तु विपश्यना धर्म पर प्रवचन देना और वह भी पूज्य गुरुदेव की उपस्थिति में, यह बड़ा अटपटा लगा और झिझक भी हुई। परंतु गुरुदेव का आदेश था । अतः पूरा किया और झिझक मिटी।
उत्तरी बर्मा की इस धर्मचारिका के कुछ दिनों बाद ही रंगून के विपश्यना केन्द्र में एक शिविर लगा, जिसमें केवल तीन साधक शामिल हुए और तीनों ही हिंदी भाषी भारतीय। जब आनापान देने का समय आया तो सदा की भांति मैं गुरुदेव के साथ चैत्य के केन्द्रीय कक्ष में गया। वहां गुरुदेव ने प्रारंभिक बुद्ध बंदना पूरी की और फिर यकायक मुझे कहा कि अब इन्हें त्रि-रत्न शरण, पंचशील और आनापान तुम दो! इस सर्वथा अप्रत्याशित आदेश से मैं चौंका।
उन्होंने मुझे जरा घबराया हुआ देखा तो आश्वासन भरे शब्दों में - हिम्मत बँधायी कि तुम मत घबराओ। मैं तो यहीं तुम्हारे पास हूं।
मैंने अपनी झिझक दूर की और उनकी उपस्थिति में पहली बार प्रारंभिक धर्म-शिक्षण का गंभीर उत्तरदायित्व निभाया। गुरुदेव बहुत संतुष्ट प्रसन्न हुए।
चौथे दिन विपश्यना थी। यह तो अनुमान था कि विपश्यना भी शायद गुरुजी मुझसे ही दिलवाएंगे। पर घबराहट तब हुई जब गुरुजी विपश्यना देने का आदेश देकर स्वयं अपने निवास कक्ष में विश्राम करने चले गए। उनकी अनुपस्थिति में मैं अकेला विपश्यना कैसे दूंगा ? परंतु शायद वे यही सिखाना चाहते थे। उन्होंने जाते-जाते हिम्मत बँधायी कि वे उपस्थित नहीं रहेंगे तो क्या हुआ? उनकी मैत्री और धर्म की तरंगें तो रहेंगी ही; जो मुझे सुरक्षा और सफलता देंगी। उनके आश्वासन भरे शब्दों से बल प्राप्त करके मैंने पहली बार तीन शिविरार्थियों को स्वयं अकेले विपश्यना दी।
सिर से पांव तक विपश्यना की यात्रा अभी आधी भी नहीं हो पाई थी कि उन तीनो में से एक साधक बड़ी तीव्र गति से धूजने लगा। क्षण प्रतिक्षण उसका कांपना और धूजना तेज हुआ जा रहा था। मानो उस पर कोई प्रेत-प्राणी सवार हो गया हो। कुछ क्षणों के लिए मेरी सिट्टी- पिट्टी गुम हो गई। अब क्या करूं? जी में आया कि आवाज देकर गुरुजी को बुलाऊं। पर ऐसा करने से विपश्यना का सारा वातावरण ही नष्ट हो जाता। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो उठा। तत्काल मेरे मन में गुरुदेव का मुस्कराता हुआ चेहरा जागा। फिर कानों में उनके आश्वासन भरे शब्द गुंजे और चारों ओर उनकी मैत्री की धर्म-तरंगें महसूस होने लगीं। बड़ा बल मिला। मैं समझ गया कि उन्हें
आत्म कथन
विपश्यना जीवन में उतरे
धर्म जीवन में उतरे तो ही धर्म है। विपश्यना दैनिक जीवन व्यवहार में उतरनी चाहिए। अन्यथा यंत्रवत हो जाएगी, कर्मकाण्ड बन जाएगी और फलदायी नहीं होगी। जीवन के उतार चढ़ाव में, बसंत-पतझड़ में विपश्यना साधना के कारण समता बनी रहे; इस पर गुरुदेव खूब जोर देते थे। इसी कारण मेरे मन पर उनके इस उपदेश को बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था।
जब यकायक मेरे सारे व्यवसायों का राष्ट्रीयकरण हो गया और उद्योग भी सरकार के हवाले हो गए, तो चित्त की समता और शांति बनाए रखने में विपश्यना का ही बल मिला। गुरुदेव इसे देखकर बहुत प्रसन्न होते थे।
एक दिन उन्होंने मुझे पूछ लिया, “ दैनिक विपश्यना साधना करने के बाद क्या तुम अपने पुण्य का वितरण करते हो और कुछ देर मैत्री-भावना करते हो?"
मैंने हां में उत्तर दिया तो उन्होंने पूछा, " विशेष रूप से किसे अपने पुण्य में भागीदार बनाते हो?"
मैंने कहा, "अपने बड़ों को और फिर उन सब को जिन्होंने मुझे धरम में पकने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायता दी है। इनमें सरकार के वे मंत्री और अफसर भी हैं, जिन्होंने मेरे व्यवसाय आदि का राष्ट्रीयकरण किया और मुझे धर्म में पकने का सुअवसर दिया। इसके बाद अन्य सभी प्राणियों को।"
- गुरुदेव यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। मैंने उन्हें बताया कि राष्ट्रीयकरण हो जाने के कारण मेरे मन में सरकार के प्रति अथवा संबंधित अधिकारियों के प्रति रंच मात्र भी द्वेष नहीं है। इस मंत्रिमंडल में मेरे मित्र भी हैं। उनके द्वारा यह जानकर मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि सरकार का यह कदम किन्हीं विशेष व्यापारियों के प्रति द्वेष के कारण नहीं उठा, बल्कि सच्चाई यह है कि इससे सारे राष्ट्र की भलाई होगी, ऐसा मान कर उन्होंने यह कदम उठाया है। जब उनके मन में दुर्भावना नहीं है तो मेरे मन में दुर्भावना क्यों जागे ?. बल्कि सच्चाई तो यह है कि मेरे मन में तो सद्भावना ही जागती है। मैं सरकार का अत्यंत कृतज्ञ हूं कि उसने मुझे व्यवसाय-उद्योग चलाने की उन सारी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया, जिनमें कि मैं इतना उलझा रहा करता था। अब तो समय ही समय है, फुरसत ही फुरसत है। अब मैं अपना सारा समय परियत्ति और पटिपत्ति धर्म में लगा रहा हूं जो कि अन्यथा बिल्कुल असम्भवः होता।
गुरुदेव ने यह सुनकर साधु! साधु! साधु! कहा और मुझे उत्साहित किया कि मैं इसी प्रकार इन्हें मैत्री देता रहूं। और मैं इसी प्रकार मैत्री देता रहा, दिये जा रहा हूं और देता रहूंगा। मैं इस कारण सचमुच बड़ा प्रसन्न हूं।
जब आधार ही गलत हो:-
परम पूज्य गुरुदेव को इस बात का पूर्ण विश्वास था कि भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के २५०० वर्ष बाद विपश्यना अपनी जन्मभूमि भारत में फिर जागेगी और सारे विश्व में फैलकर विपुल लोक-कल्याण करेगी। वे बहुधा कहा करते थे कि " अब विपश्यना का डंका बज गया है। समय आ गया है। यह बर्मा से बाहर जाएगी और खूब फैलेगी।” उनकी यह प्रबल धर्म-कामना थी कि स्वयं इस धर्मदूत का महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादन करें। स्वयं भारत जाकर विपश्यना के शिविर लगाएं। उस देश में विपश्यना विद्या को पुनः स्थापित करें, जिससे दुखियारे लोगों को दुःख-विमुक्ति का कल्याणकारी मार्ग मिले।
वह बार बार कहा करते थे, बर्मा पर भारत का बहुत बड़ा ऋण है, जिसकी अदायगी का अब समय आ गया है। वहीं से हमें यह अनमोल धर्मरत्न मिला। भारत इसे खो चुका है। आज उसे इसकी बहुत आवश्यकता है। भारत में इस समय ऐसे बहुत लोग जन्मे हैं, जिनके पास अनेक जन्मों की पुण्य पारमिताएं हैं। ऐसे लोग विपश्यना के धर्मरत्न को शीघ्र ही सहर्ष स्वीकार करेंगे।"
लेकिन उत्कट अभिलाषा होते हुए भी लाचारी थी। वे इस सत्कार्य के लिए भारत नहीं जा सकते थे, क्योंकि उन दिनों किसी बर्मी नागरिक को विदेश-यात्रा के लिए पासपोर्ट मिलना निहायत कठिन था।
- . ऐसे समय मद्रास के महाबोधि सोसायटी के प्रमुख भिक्षु नंदीश्वरजी का निमंत्रण पत्र आया। उन्होंने पूज्य गुरुजी और उनके चंद साथियों को विपश्यना के शिविर लगाने हेतु भारत आने के लिए आमंत्रित किया। गुरुदेव बड़े प्रसन्न हुए। लगा उनकी चिरसंचित अभिलाषा पूर्ण होने का समय आ गया है। धर्म-सेवा के लिए विदेश जाने की आकांक्षा प्रगट करते हुए उन्होंने पासपोर्ट के लिए सरकार के पास आवेदन पत्र चढ़ाया। । संबंधित मंत्री बहुत बड़े धर्म-संकट में पड़ गया। गुरुजी के प्रति उसके मन में बहुत आदरभाव था। परंतु उसकी लाचारी थी। सरकारी निर्णय के अनुसार पासपोर्ट केवल उन्हीं बर्मी नागरिकों को दिया जा सकता था, जो कि सदा के लिए बर्मा छोड़ कर जाते हों अथवा जीविकोपार्जन के लिए विदेश में नौकरी करने जाते हों। ऐसी अवस्था में गुरुदेव को पासपोर्ट कैसे देता ? अतः उसने सरकार के एक बड़े अफसर को गुरूजी के पास भेजा। यह व्यक्ति गुरुजी का शिष्य भी था। उसके जरिए संदेश भेजा कि सरकारी आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए गुरुजी अपने किसी विदेशी शिष्य से नौकरी दिये जाने का
S.N. Goenkaji
Everyone faces unwanted situations in life. Whenever something unwanted happens, one loses the balance of one’s mind, and starts generating negativity. And whenever a negativity arises in the mind, one becomes miserable. How is one not to generate negativity, not to create tension? How is one to remain peaceful and harmonious?
A fully enlightened person the Buddha finds a real solution: don’t run away from the problem; face it. Observe whatever impurity arises in the mind. By observing one does not suppress it, nor does one give it a free licence to express itself in harmful vocal or physical action. Between these two extremes lies the middle path: mere observation. When one starts to observe it, the negativity loses its strength and passes away without overpowering the mind. Not only that, but some of the old stock of that type of impurity will also be eradicated. Whenever a defilement starts at the conscious level, one’s old stock of that type of defilement arises from the unconscious, becomes connected with the present defilement, and starts multiplying. If one just observes, not only the present impurity but also some portion of the old stock will be eradicated. In this way, gradually all the defilements are eradicated, and one becomes free from misery.
However, enlightened persons discovered that whenever a defilement arises in the mind, simultaneously two things start happening at the physical level: respiration will become abnormal, and a biochemical reaction will start within the body, a sensation. A practical solution was found. It is very difficult to observe abstract defilements in the mind, but with training one can soon learn to observe respiration and sensation, both of which are physical manifestations of the defilements. By observing a defilement in its physical aspect, one allows it to arise and pass away without causing any harm. One becomes free from the defilement.
It takes time to master this technique, but as one practises, gradually one will find that in more and more external situations in which previously one would have reacted with negativity, now one can remain balanced. Even if one does react, the reaction will not be so intense or prolonged as it would have been in the past. A time will come when in the most provoking situation , one will be able to heed the warning given by respiration and sensation, and will start observing them, even for a few moments. These few moments of self-observation will act as a shock absorber between the external stimulus and one’s response. Instead of reacting blindly, the mind remains balanced, and one is capable of taking positive action that is helpful to oneself and others.
You have taken a first step towards eradicating your defilements and changing the habit pattern of the mind, by observing sensations within yourself.
May all of you enjoy real happiness.
May all beings be happy!
Ref: The Discourse summaries
http://www.vridhamma.org/The-Discourse-Summaries
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Vipassana S. N. Goenka speech QA at Harvard Business Club 2 of 2
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