प्रच्छन्न इतिहास (History)

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1 month, 4 weeks ago

आर्यसमाजियों और  इस्लामिक मतानुयायियों के मान्य राष्ट्रवाद की  धर्मशास्त्रीय समीक्षा ---

आर्यसमाजियों, इस्लामिक मतवादियों और सनातनी हिन्दुओं में अनेक स्थलों  पर  सैद्धान्तिक मतभेद सर्वविदित है , इसी प्रकार का मतभेद राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में भी है ।

एक महाशय (आर्यसमाजी चिन्तक)    का कहना था कि भले ही आप   पौराणिक सनातनी लोग हम आर्यसमाजियों  से अनेक विषयों में मतभेद रखें पर  हमारी राष्ट्रभक्ति  से असहमत  नहीं हो सकते ।  ऐसे ही आजकल के कुछ नवचिन्तक मानते हैं कि  राष्ट्रवादी इस्लामिक मतानुयायियों  की राष्ट्रभक्ति  सनातनियों के लिये  पूर्णतः आदरणीय है इत्यादि, किन्तु यथार्थता तो यही है कि आर्यसमाजियों और तथाकथित मुसलमानों का राष्ट्रवाद   वस्तुतः  अविचारितरमणीय ही  है।   वस्तुतः तो  सैद्धान्तिक दृष्टि से  ये लोग  आवासवादी ही  हैं , अर्थात् जहॉ इनका आवास है, उसी की ये रक्षा चाहते हैं । उक्त जन्मना आवासवाद के सिद्धान्त पर विचार करें तो  यदि यह सउदी अरब में जन्मे होते तो  वहॉ अपनी रक्षा के लिये सउदी अरब की ही जयकार करते ,  जबकि जो वैदिक सनातनी हिन्दू हैं , वे चाहे विश्व के किसी भी देश में जन्म ले लें , अथवा रहने को मजबूर कर दिये जायें, परन्तु वह सर्वप्रथम  भारत की रक्षा को ही सर्वोपरि मानते हैं। इसका कारण क्या है ? कारण है मान्य शास्त्रीय  सिद्धान्त । वह कैसे , आगे देखें -

जिनके सिद्धान्त में  केवल और केवल  भारत को ही कर्मभूमि माना  गया है , उसके लिये भारत से बाहर क्या गति होगी जो विष्णुपुराण को  अपने धर्मग्रन्थ के रूप में प्रमाण मानते हैं , वह  भारत के विषय में कर्मभूमि भोगभूमि का सिद्धान्त मानते हैं ।  अतः वे चाहे विश्व में कहीं भी रहें , उनका कर्मफल पुनर्जन्म का उनका सिद्धान्त  और कर्मभूमि भोगभूमि का सिद्धान्त उनको भारत के समकक्ष किसी के नहीं समझने देता । उनके लिये तो भारत ही पहली और अन्तिम गति है । किन्तु कथित राष्ट्रवादी मुसलमानों के मान्य कुरआन शरीफ में  यह सैद्धान्तिक  स्थिति है क्या

इसी प्रकार आर्यसमाजियों के मान्य सिद्धान्त में भी जो तिब्बत की धरती से प्रकट होने वाले आर्यसमाजियों के लिये मनु के आर्यावर्त्त  की मान्यता है, उसके मूल में  कर्मभूमि और भोगभूमि का कोई पार्थक्य न होने से अमेरिका की धरती और भारत की धरती में कोई  अन्तर नहीं है ।   गंगा  यमुना सरस्वती आदि का यह  वेद में वर्णन ही नहीं मानते , वह केवल एक जलस्रोतमात्र  इनके सिद्धान्त में है ।  यह भारत में इसीलिये रहते हैं क्योंकि इनके पूर्वज  यहॉ रहते आये हैं , परन्तु इनके वे पूर्वज  यहॉ भारत में क्यों रहे ? किस कारण से भारत में  रहे ? इस पर विचार अपेक्षित है , क्योंकि मूल में यदि भौतिक सुविधा जैसा हेतु होगा , तो वह भौतिक सुविधा जिस देश में इनको मिलना सम्भव होगा , वही सैद्धान्तिक धरातल पर इनका नवीन राष्ट्र  सिद्ध होने लगेगा । वस्तुतः तो सत्यार्थप्रकाशादि के आधार पर   जैसा आर्यसमाजियों का राष्ट्रवाद है, आर्यसमाजी अगर अमेरिका में रहेंगे तो एक पीढी के बाद ही उसको भी अपना राष्ट्र मानने लगेंगे क्योंकि / पूर्वजों की आवासभूमि/ के इनके सिद्धान्तानुरूप अपने  पूर्वजों को  वहॉ भी रहते हुए  ये पा लिये । जिस संहिताभागमात्र को यह अपने लिये सर्वोच्चप्रमाणत्वेन  वेद मानते हैं,  उसमें इतिहास का लवलेश भी इनके मत में कहीं नहीं है ।   इस प्रकार सैद्धान्तिक धरातल पर इनका राष्ट्रवादी भाव व्यभिचरित सिद्ध हो जाता है ।

आज आवश्यकता यह है कि यह लोग  'सनातनी हिन्दू राष्ट्रवाद'  को अपनाऐं, जिससे  सैद्धान्तिक धरातल पर यह  सनातनी हिन्दुओं की ही भांति  शुद्ध , पवित्र राष्ट्रवादी सिद्ध हो सकें ।  

सन्मार्ग
🌼🌼🌼🌼🌼

2 months, 1 week ago

सत्यार्थ प्रकाश में दयानन्द सरस्वती कहते है कि मूर्ति पूजा करने वाले देश का नाश करते है और मूर्तिपूजा करने वाली की आत्मा भी जड़ बुद्धि हो जाती है।

- ललितादित्य मुक्तापीड
- राजा भोज
- राजा विक्रमादित्य
- पृथ्वीराज चौहान
- राजा कृष्णदेव राय
- महाराणा प्रताप
- समर्थ गुरु रामदास जी
- छत्रपति शिवाजी महाराज

ये सभी मूर्तिपूजक थे
क्या इनकीं आत्मा जड़ हो गयी थी?
क्या इन्होंने देश का नाश किया था?
क्या आपके माता पिता इस देश का नाश कर रहे है?

सोचिए और ऐसी संस्थाओं से सावधान हो जाइए।

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2 months, 1 week ago

वर्णव्यवस्था की डिबेट में जब हर तरफ से आर्य समाजी घिर जाते है या निउत्तर हो जाते है तो उन को उन्ही पुराणों का सहारा लेना पड़ता है जिनको दिन भर बैठ कर गरियाते रहते है।

जन्मना जायते शूद्र: जो स्कंद पुराण का श्लोक है वो कुछ समय के लिए इनके लिए ऋषि वाक्य हो जाता है।

इन दोगले लोगो से अछूत की बीमारी की तरह दूर रहे।

4 months, 3 weeks ago

जय श्री राम

कुछ दिन पहले हमें 2 गाएं मिली जिनके चोट लगी हुई थी। हमने उनकी चोट का यथासंभव उपचार किया।

इस गौसेवा में सहयोग करने वाले सभी बंधुओं को बहुत- बहुत धन्यवाद।

https://youtu.be/Iw3HWU3k9Ow?si=B5WdXhj1X5Px_Vup

आप मुझे नीचे दिए गए upi id पर सहायता कर सकते है।
satyam9785@cnrb

5 months, 1 week ago

तुम ,
तुम्हारी सृष्टि  ,
तुम्हारा नियम ,
बिधि तुम्हारी और
तुम्हारी इच्छा

मैं 
भक्त तुम्हारा
तुम्हारी सृष्टि में ,
तुम्हारे नियम से बंधा हुआ ..
तुम्हारी इच्छा से जीवन मेरा ..
अर्पण, समर्पण , भक्ति , भाव
सब कुछ तुम्हारा...
सुख भी और दुःख भी ..
कर्म मेरा पीड़ा मेरी
सहानुभूति तुम्हारा ...

तुम ईश्वर
मैं सत्ता-हीन
ये जन्म-जन्मांतर का बन्धन हमारा ...
तन , मन , प्राण मेरा
और चरण तुम्हारा ...
तुम मेरे सर्वस्व
मैं दास तुम्हारा ...

?

5 months, 2 weeks ago

केवल वर्ण और जाति ही क्यों मिटानी है आपको ? परिवार भी मिटा दीजिये। माता, पिता, सास, बहू, बेटा, बहन, आदि में भी कितने झगड़े चल रहे हैं तो एकता आयेगी कैसे ? जाति से अधिक मुकदमे तो परिवार के नाम पर चल रहे न तो परिवार को मिटाकर हिन्दू एकता लाओ, केवल नर मादा रहने दो और उसके बाद उसका भेद भी मिटा दो। काल्पनिक पार्टियों के नाम पर बंटे रहना स्वीकार है, पारिवारिक रिश्तों में बंटे रहना स्वीकार है लेकिन जिस शास्त्रीय वर्णाश्रम विधान से धर्म व्यवस्था पुष्ट है, उसमें मानसिक म्लेच्छ बना हिन्दू नहीं रहना चाहता है।

- निग्रहचार्य श्रीभागवतानंद गुरु

7 months, 1 week ago

जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्द्विज उच्यते ॥
(स्कन्दपुराण)

यहाँ जन्म से शूद्र इसीलिए कहा क्योंकि असंस्कृत व्यक्ति की शूद्रवत् संज्ञा है। जैसे शूद्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं, वैसे ही अनुपवीती ब्राह्मण को भी नहीं।

इसीलिए उसी स्कन्दपुराण में फिर कहा :-
ब्राह्मणो हि महद्भूतं जन्मना सह जायते ॥
ब्राह्मण जन्म से ही महान् है।

ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण है, यह बात सत्य है लेकिन उससे पहले ब्राह्मण माता पिता और गुरु की भी आवश्यकता है। तब वह ब्रह्म को जान पाता है। यहां कॉलेज का सिलेबस खत्म कर नहीं पाते, चले हैं ब्रह्मज्ञान भांजने।

7 months, 3 weeks ago

धर्म का अंतिम प्रयोजन क्या है?

स्थिति बनी रहे यह तो है ही, लेकिन स्थिति बनी रहे इससे प्रयोजन क्या सिद्ध होगा?
प्रयोजन तो इस सृष्टि का केवल मोक्ष ही है।

इसलिये शास्त्रकारों ने कहा है 'जीवन्मुक्तिसुखप्राप्तिहेतवे जन्म' हमारा जन्म इसलिये होता है कि हम जीवन्मुक्ति के सुख को प्राप्त करें ।
क्षुद्र भोगों की प्राप्ति तो पशु पक्षी शरीरों में भी होती है।
इसके लिये बुद्धि वाले मनुष्य की कोई जरूरत नहीं है।
भोग भोगना तो मन, इन्द्रिय से ही हो जाता है।
उसमें उचित-अनुचित समझने वाली बुद्धि की जरूरत नहीं है।

मनुष्य के अन्दर जो यह उचित-अनुचित की बुद्धि है वह इसलिये कि जीवन्मुक्ति के सुख को प्राप्त करे ।
अतः उस मार्ग का प्रवर्तन करने के लिये उन्होंने सनकादि को उत्पन्न किया और उनको निवृत्ति धर्म का उपदेश दिया।

निवृत्तिलक्षण धर्म क्या है?
‘ज्ञानवैराग्यलक्षणम्' जिसमें परमात्मा का ज्ञान हो
और
संसार के प्रति वैराग्य हो।
यह निवृत्ति का स्वरूप है।
यह सारा संसार ठीक-ठीक चलता रहे इसके लिये उन्होंने मरीचि आदि को प्रवृत्ति धर्म का उपदेश दिया जिसे यहाँ 'धर्मक्षेत्र' से कहा।

सनकादि को उत्पन्न करके उन्होंने ज्ञान वैराग्य का उपदेश दिया, निवृत्तिलक्षण धर्म का उपदेश दिया, जिसे यहाँ 'कुरुक्षेत्र' से कहा।
सनक सनंदन को उन्होंने क्यों चुना? क्योंकि इन्हें नित्यकुमार कहा है।
'कुत्सितः मारः येन स कुमारः' जिसने कामदेव को जीत लिया है, उसको कुत्सित कर दिया है, वही कुमार है।
चूँकि सनकादियों ने पहले ही कामनाओं को नष्ट कर दिया था इसलिये वे इस उपदेश को पाने के योग्य थे। अतः उनके द्वारा निवृत्ति मार्ग का प्रवर्तन किया।

केवल दो प्रकार के ही धर्म सारे शास्त्रों में प्रतिपादित हैंप्रवृत्ति और निवृत्ति ।
जगत् की स्थिति का कारण जो प्रवृत्ति धर्म है वही प्राणियों के अभ्युदय का कारण है।
उसी धर्म का ईश्वरार्पण बुद्धि से अनुष्ठान करने पर वह मोक्ष का कारण हो जाता है।
वह धर्म ब्राह्मण आदि, गृहस्थ आदि जो वर्ण और आश्रम वाले हैं, उनके द्वारा अनुष्ठित होकर ही कल्याण का साधन होता है।

भगवान् ने उपदेश दे दिया, दीर्घ काल तक धर्म चलता भी रहा।
सनकादि तो कामशून्य थे परन्तु अधिकतर लोग कामना वाले ही होते हैं।
इसलिये अधिकतर ब्राह्मणादि वर्णाश्रमी विज्ञान के लिये हेतु बनने वाले निष्काम कर्मों को छोड़कर कामनापूर्ति के कर्मों मे ही प्रवृत्त होते हैं।
विवेक की कमी के कारण उचित-अनुचित को अलग-अलग न कर अधर्म को ही ठीक मान लेते हैं अतः अधर्म ही बढ़ता जाता है।
यह समझने के लिये अनुमान की जरूरत नहीं है, आजकल के युग में सर्वत्र देख ही रहे हो।
विवेक विज्ञान न होने के कारण ही हम अधर्म को आवश्यक मानते हैं और कहते हैं कि अधर्म के बिना काम नहीं चल सकता।
ऐसा ही अधिकतर लोगों के मन में बैठा हुआ है। इस तरह से अधर्म के द्वारा धर्म दब जाता है और चारों तरफ अधर्म ही देखने में आता है।

श्रीकृष्ण संदेश
ब्रह्मलीन पूज्य महेशानंद गिरी जी

10 months, 2 weeks ago

जब आर्य समाजी गीता जी के श्लोकों को वेद विरुद्ध बताते है तो ऐसा लगता है पाँचवी कक्षा का बालक दसवीं कक्षा की किताबों को पढ़ कर फर्जी बता रहा है।

जैसे हम फिर उस बालक को कुछ नही समझाते क्योंकि जानते है वो अभी पूर्ण बात नही जानता वेसे ही आर्य समाजियों से बहस नही करना।

जहाँ दिखे मूर्ख जोड़ लीजिए हाथ।?

और और और

मूर्ख को यह बताने में भी अपना समय नष्ट न करो कि वह मूर्ख है क्योंकि वह मानेगा ही नहीं कि वह मूर्ख है।

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