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याद-ए-माज़ी // Memories of the Past
*याद-ए-माज़ी में रह रही थी तुम...
वो भला मुझसे क्या कह रही थी तुम?
हाँ... इन्हीं...
परदों के पीछे से इशारा करके...
काश के तुम मुझे
इस क़ाबिल समझती...
हम तुम्हारी ज़ुल्फ़ों को
संवारा करते...
तुम मेरी आँखों में रहा करती...
सब सही कर देता मैं
अगर तुम 'हाँ' करती...
हम भला तुम्हें
पलकों से क्यों उतारा करते...
हाँ, मैं झिझकता रहा ये
सब कहते हुए...
पर तुमने उसे चुना,
मेरे रहते हुए...?
हम भला ये कैसे गवारा करते?
शर्म, हया, बुज़दिल था मैं,
और शायद अना हो तुम...
कितने संगदिल ख़ुदा की पनाह हो तुम...
मेरा इश्क़ इबादत था
या फिर गुनाह हो तुम?
दुआ हो तुम?
या वजह हो तुम?
सज़ा हो तुम?
या नशा हो तुम?
लगता है ख़ुदा की रज़ा हो तुम...
और वसंत जब भी आया करता...
मैं तुम्हें छत पर ले जाया करता...
तुम बालों को सुखाया करती...
और हम... बस एक दूजे को निहारा करते...
ज़माने की नज़रों से बचाना था तुम्हें...
पता नहीं क्या-क्या माना था तुम्हें...
मैं तुम्हारी आँखें पढ़ने आया था...
मैं तो ज़माने से लड़ने आया था...
तुमने तो रेत की तरह जाने दिया?
जबकि हम एक दूजे का सहारा बनते...
हम कहीं दूर निकल जाते इस सब से...
मैंने तो क्या नहीं सोच रखा था, ना जाने कब से...
मैंने तो सजदों में माँगा था
तुम्हें रब से...
मैं अगर अंधेरों से आया था...
तुम मेरी रौशनी, मेरा सितारा बनते...
एक आस सी रह जाती है...
तल्हा... तन्हाई पास सी रह जाती है...
पतझड़ सी झड़ जाती हैं यादें...
पास बस एक घास सी रह जाती है...
काश के तेरे नाम में मेरा नाम रहता...
काश के तुम्हें तकने का काम रहता...
काश के तेरे साये में आराम करता...
काश के हर शाम तेरे नाम करता...
तू लफ़्ज़ों में नहीं, मेरे लबों पर होती...
मुझसे लिपटकर काश तुम रोती...
काश तेरे ग़मों को पी लेता मैं...
हाँ, शायद थोड़ा सा जी लेता मैं...
काश ये 'काश' नहीं रहता...
मैं तेरे पास यहीं रहता...
काश कभी तुम समझ पाते...
कभी चुपके से देखा करते...
कभी कोई ख़ामोश इशारा करते...
अब बारिशें हों ना हों,
मुझे क्या फ़र्क पड़ता है...
पेड़ सूख रहा है जड़ों से...
मर जाने दो...
क्या फ़र्क पड़ता है...
और...
शब्द भी तो मर रहे हैं...
सो मर जाने दो...
घास सूख चुकी है शायद...
सो मुझे मेरे घर जाने दो...
नशा नहीं अक्स है...
ज़रा उतर जाने दो...
वो यहीं से गुज़री थी...
आख़िरी दफ़ा...
मत रोको मुझे उधर जाने दो...
क्या वो सच है?
या ख़्वाब है... कोई?
उसके बिना चैन क्यों नहीं आता?
मानो शराब है कोई...
ऐसे आँखों में आकर आँखें मोड़ जाना...
ऐसे तड़पते हुए छोड़ जाना...
इस से अच्छा तो क़त्ल तुम हमारा करते...
काश के तुम कोई इशारा करते.
-तन्हा*
🌝
Tsundoku (積ん読) is the phenomenon of acquiring reading materials but letting them pile up in one's home without reading them. The term is also used to refer to books ready for reading later when they are on a bookshelf.
- [wiki]
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[Book Extract]
Man shouldn't be able to see his own face – there's nothing more sinister. Nature gave him the gift of not being able to stare into his own eyes. Only in the waters of rivers and ponds could he look at his face. And the very posture he had to assume was symbolic. He had to bend over, stoop down, to commit the ignominy of beholding himself. The inventory of the mirror poisoned the human heart.
— Fernando Pessoa, The Book of Disquiet
[Book Extract]
*Knowing how easily even the smallest things torture me, I deliberately avoid contact with them. A cloud passing in front of the sun is enough to make me suffer, how then should I not suffer in the darkness of the endlessly overcast sky of my own life?
My isolation is not a search for happiness, which I do not have the heart to win, not for peace, which one finds only wen it will never more be lost; what I seek is sleep, extinction, a small surrender.
— Fernando Pessoa, The Book of Disquiet*
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