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🔔 श्रीरामचरितमानस 🔔
॥ श्रीजानकीवल्लभो विजयते ॥
द्वितीय सोपान : अयोध्याकांड
☞ पोस्ट 26 ☜
उतरु न आव बिकल बैदेही।
तजन चहत सुचि स्वामि सनेही॥
बरबस रोकि बिलोचन बारी।
धरि धीरजु उर अवनिकुमारी॥2॥
**लागि सासु पग कह कर जोरी।
छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी।
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई।
जेहि बिधि मोर परम हित होई॥3॥
मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं।
पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥4॥**
भावार्थ:- जानकीजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता, वे यह सोचकर व्याकुल हो उठीं कि मेरे पवित्र और प्रेमी स्वामी मुझे छोड़ जाना चाहते हैं। नेत्रों के जल को जबर्दस्ती रोककर वे पृथ्वी की कन्या सीताजी हृदय में धीरज धरकर,॥2॥
सास के पैर लगकर, हाथ जोड़कर कहने लगीं- हे देवि! मेरी इस बड़ी भारी ढिठाई को क्षमा कीजिए। मुझे प्राणपति ने वही शिक्षा दी है, जिससे मेरा परम हित हो॥3॥
परन्तु मैंने मन में समझकर देख लिया कि पति के वियोग के समान जगत में कोई दुःख नहीं है॥4॥
प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥64॥
भावार्थ:- हे प्राणनाथ! हे दया के धाम! हे सुंदर! हे सुखों के देने वाले! हे सुजान! हे रघुकुल रूपी कुमुद के खिलाने वाले चन्द्रमा! आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिए नरक के समान है॥64॥
मातु पिता भगिनी प्रिय भाई।
प्रिय परिवारु सुहृदय समुदाई॥
सासु ससुर गुर सजन सहाई।
सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥1॥
भावार्थ:- माता, पिता, बहिन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रों का समुदाय, सास, ससुर, गुरु, स्वजन (बन्धु-बांधव), सहायक और सुंदर, सुशील और सुख देने वाला पुत्र-॥1॥
जहँ लगिनाथ नेह अरु नाते।
पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू।
पति बिहीन सबु सोक समाजू॥2॥
भावार्थ:- हे नाथ! जहाँ तक स्नेह और नाते हैं, पति के बिना स्त्री को सूर्य से भी बढ़कर तपाने वाले हैं। शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगर और राज्य, पति के बिना स्त्री के लिए यह सब शोक का समाज है॥2॥
भोग रोगसम भूषन भारू।
जम जातना सरिस संसारू॥
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं।
मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥3॥
भावार्थ:- भोग रोग के समान हैं, गहने भार रूप हैं और संसार यम यातना (नरक की पीड़ा) के समान है। हे प्राणनाथ! आपके बिना जगत में मुझे कहीं कुछ भी सुखदायी नहीं है॥3॥
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।
तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें।
सरद बिमल बिधु बदनु निहारें॥4॥
भावार्थ:- जैसे बिना जीव के देह और बिना जल के नदी, वैसे ही हे नाथ! बिना पुरुष के स्त्री है। हे नाथ! आपके साथ रहकर आपका शरद्-(पूर्णिमा) के निर्मल चन्द्रमा के समान मुख देखने से मुझे समस्त सुख प्राप्त होंगे॥4॥
खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल॥65॥
भावार्थ:- हे नाथ! आपके साथ पक्षी और पशु ही मेरे कुटुम्बी होंगे, वन ही नगर और वृक्षों की छाल ही निर्मल वस्त्र होंगे और पर्णकुटी (पत्तों की बनी झोपड़ी) ही स्वर्ग के समान सुखों की मूल होगी॥65॥
बनदेबीं बनदेव उदारा।
करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥
कुस किसलय साथरी सुहाई।
प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥1॥
भावार्थ:- उदार हृदय के वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुर के समान मेरी सार-संभार करेंगे और कुशा और पत्तों की सुंदर बिछौना ही प्रभु के साथ कामदेव की मनोहर तोशक के समान होगी॥1॥
कंद मूल फल अमिअ अहारू।
अवध सौध सत सरिस पहारू॥
छिनु-छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी।
रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥2॥
भावार्थ:- कन्द, मूल और फल ही अमृत के समान आहार होंगे और (वन के) पहाड़ ही अयोध्या के सैकड़ों राजमहलों के समान होंगे। क्षण-क्षण में प्रभु के चरण कमलों को देख-देखकर मैं ऐसी आनंदित रहूँगी जैसे दिन में चकवी रहती है॥2॥
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे।
भय बिषाद परिताप घनेरे॥
प्रभु बियोग लवलेस समाना।
सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥3॥
भावार्थ:- हे नाथ! आपने वन के बहुत से दुःख और बहुत से भय, विषाद और सन्ताप कहे, परन्तु हे कृपानिधान! वे सब मिलकर भी प्रभु (आप) के वियोग (से होने वाले दुःख) के लवलेश के समान भी नहीं हो सकते॥3॥
अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि।
लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि॥
बिनती बहुत करौं का स्वामी।
करुनामय उर अंतरजामी॥4॥
भावार्थ:- ऐसा जी में जानकर, हे सुजान शिरोमणि! आप मुझे साथ ले लीजिए, यहाँ न छोड़िए। हे स्वामी! मैं अधिक क्या विनती करूँ? आप करुणामय हैं और सबके हृदय के अंदर की जानने वाले हैं॥4॥
क्रमश:–
सीताराम सीताराम 🙏
नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव 🚩****
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॥ श्रीजानकीवल्लभो विजयते ॥
द्वितीय सोपान : अयोध्याकांड
☞ पोस्ट 25 ☜
एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा।
सादर सासु ससुर पद पूजा॥
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी।
होइहि प्रेम बिकल मति भोरी॥3॥
भावार्थ:- आदरपूर्वक सास-ससुर के चरणों की पूजा करने से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। जब-जब माता मुझे याद करेंगी और प्रेम से व्याकुल होने के कारण उनकी बुद्धि भोली हो जाएगी (वे अपने-आपको भूल जाएँगी)॥3॥
तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी।
सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी॥
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही।
सुमुखि मातु हित राखउँ तोही॥4॥
भावार्थ:- हे सुंदरी! तब-तब तुम कोमल वाणी से पुरानी कथाएँ कह-कहकर इन्हें समझाना। हे सुमुखि! मुझे सैकड़ों सौगंध हैं, मैं यह स्वभाव से ही कहता हूँ कि मैं तुम्हें केवल माता के लिए ही घर पर रखता हूँ॥4॥
गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस॥61॥
भावार्थ:- (मेरी आज्ञा मानकर घर पर रहने से) गुरु और वेद के द्वारा सम्मत धर्म (के आचरण) का फल तुम्हें बिना ही क्लेश के मिल जाता है, किन्तु हठ के वश होकर गालव मुनि और राजा नहुष आदि सब ने संकट ही सहे॥61॥
मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी।
बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥
दिवस जात नहिं लागिहि बारा।
सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥1॥
भावार्थ:- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो, मैं भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूँगा। दिन जाते देर नहीं लगेगी। हे सुंदरी! हमारी यह सीख सुनो!॥1॥
जौं हठ करहु प्रेम बस बामा।
तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा॥
काननु कठिन भयंकरु भारी।
घोर घामु हिम बारि बयारी॥2॥
भावार्थ:- हे वामा! यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो तुम परिणाम में दुःख पाओगी। वन बड़ा कठिन और भयानक है। वहाँ की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक हैं॥2॥
कुस कंटक मग काँकर नाना।
चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना॥
चरन कमल मृदु मंजु तुम्हारे।
मारग अगम भूमिधर भारे॥3॥
भावार्थ:- रास्ते में कुश, काँटे और बहुत से कंकड़ हैं। उन पर बिना जूते के पैदल ही चलना होगा। तुम्हारे चरणकमल कोमल और सुंदर हैं और रास्ते में बड़े-बड़े दुर्गम पर्वत हैं॥3॥
कंदर खोह नदीं नद नारे।
अगम अगाध न जाहिं निहारे॥
भालु बाघ बृक केहरि नागा।
करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥4॥
भावार्थ:- पर्वतों की गुफाएँ, खोह (दर्रे), नदियाँ, नद और नाले ऐसे अगम्य और गहरे हैं कि उनकी ओर देखा तक नहीं जाता। रीछ, बाघ, भेड़िये, सिंह और हाथी ऐसे (भयानक) शब्द करते हैं कि उन्हें सुनकर धीरज भाग जाता है॥4॥
भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।
ते कि सदा सब दिन मिलहिं सबुइ समय अनुकूल॥62॥
भावार्थ:- जमीन पर सोना, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना और कंद, मूल, फल का भोजन करना होगा। और वे भी क्या सदा सब दिन मिलेंगे? सब कुछ अपने-अपने समय के अनुकूल ही मिल सकेगा॥62॥
नर अहार रजनीचर चरहीं।
कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥
लागइ अति पहार कर पानी।
बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥1॥
भावार्थ:- मनुष्यों को खाने वाले राक्षस फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपट रूप धारण कर लेते हैं। पहाड़ का पानी बहुत ही लगता है। वन की विपत्ति बखानी नहीं जा सकती॥1॥
ब्याल कराल बिहग बन घोरा।
निसिचर निकर नारि नर चोरा॥
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ।
मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥2॥
वन में भीषण सर्प, भयानक पक्षी और स्त्री-पुरुषों को चुराने वाले राक्षसों के झुंड के झुंड रहते हैं। वन की (भयंकरता) याद आने मात्र से धीर पुरुष भी डर जाते हैं। फिर हे मृगलोचनि! तुम तो स्वभाव से ही डरपोक हो!॥2॥
हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू।
सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली।
जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥3॥
हे हंसगमनी! तुम वन के योग्य नहीं हो। तुम्हारे वन जाने की बात सुनकर लोग मुझे अपयश देंगे। मानसरोवर के अमृत के समान जल से पाली हुई हंसिनी कहीं खारे समुद्र में जी सकती है॥3॥
नव रसाल बन बिहरनसीला।
सोह कि कोकिल बिपिन करीला॥
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी।
चंदबदनि दुखु कानन भारी॥4॥
नवीन आम के वन में विहार करने वाली कोयल क्या करील के जंगल में शोभा पाती है? हे चन्द्रमुखी! हृदय में ऐसा विचारकर तुम घर ही पर रहो। वन में बड़ा कष्ट है॥4॥
सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥63॥
स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह हृदय में भरपेट पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है॥63॥
सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के।
लोचन ललित भरे जल सिय के॥
सीतल सिख दाहक भइ कैसें।
चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥1॥
प्रियतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी के सुंदर नेत्र जल से भर गए। श्री रामजी की यह शीतल सीख उनको कैसी जलाने वाली हुई, जैसे चकवी को शरद ऋतु की चाँदनी रात होती है॥1॥
क्रमश:–
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॥ श्रीजानकीवल्लभो विजयते ॥
द्वितीय सोपान : अयोध्याकांड
☞ पोस्ट 24 ☜
मंजु बिलोचन मोचति बारी।
बोली देखि राम महतारी॥
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी।
सास ससुर परिजनहि पिआरी॥4॥
भावार्थ:- सीताजी सुंदर नेत्रों से जल बहा रही हैं। उनकी यह दशा देखकर श्री रामजी की माता कौसल्याजी बोलीं- हे तात! सुनो, सीता अत्यन्त ही सुकुमारी हैं तथा सास, ससुर और कुटुम्बी सभी को प्यारी हैं॥4॥
पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥58॥
भावार्थ:- इनके पिता जनकजी राजाओं के शिरोमणि हैं, ससुर सूर्यकुल के सूर्य हैं और पति सूर्यकुल रूपी कुमुदवन को खिलाने वाले चन्द्रमा तथा गुण और रूप के भंडार हैं॥58॥
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई।
रूप रासि गुन सील सुहाई॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई।
राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥
भावार्थ:- फिर मैंने रूप की राशि, सुंदर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पाई है। मैंने इन (जानकी) को आँखों की पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढ़ाया है और अपने प्राण इनमें लगा रखे हैं॥1॥
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली।
सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा।
जानि न जाइ काह परिनामा॥2॥
भावार्थ:- इन्हें कल्पलता के समान मैंने बहुत तरह से बड़े लाड़-चाव के साथ स्नेह रूपी जल से सींचकर पाला है। अब इस लता के फूलने-फलने के समय विधाता वाम हो गए। कुछ जाना नहीं जाता कि इसका क्या परिणाम होगा॥2॥
पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा।
सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहउँ।
दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥3॥
भावार्थ:- सीता ने पर्यंकपृष्ठ (पलंग के ऊपर), गोद और हिंडोले को छोड़कर कठोर पृथ्वी पर कभी पैर नहीं रखा। मैं सदा संजीवनी जड़ी के समान (सावधानी से) इनकी रखवाली करती रही हूँ। कभी दीपक की बत्ती हटाने को भी नहीं कहती॥3॥
सोइ सिय चलन चहति बन साथा।
आयसु काह होइ रघुनाथा॥
चंद किरन रस रसिक चकोरी।
रबि रुखनयन सकइ किमि जोरी॥4॥
भावार्थ:- वही सीता अब तुम्हारे साथ वन चलना चाहती है। हे रघुनाथ! उसे क्या आज्ञा होती है? चन्द्रमा की किरणों का रस (अमृत) चाहने वाली चकोरी सूर्य की ओर आँख किस तरह मिला सकती है॥4॥
करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि।
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि॥59॥
भावार्थ:- हाथी, सिंह, राक्षस आदि अनेक दुष्ट जीव-जन्तु वन में विचरते रहते हैं। हे पुत्र! क्या विष की वाटिका में सुंदर संजीवनी बूटी शोभा पा सकती है?॥59॥
बन हित कोल किरात किसोरी।
रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥
पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ।
तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥1॥
भावार्थ:- वन के लिए तो ब्रह्माजी ने विषय सुख को न जानने वाली कोल और भीलों की लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थर के कीड़े जैसा कठोर स्वभाव है। उन्हें वन में कभी क्लेश नहीं होता॥1॥
कै तापस तिय कानन जोगू।
जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू॥
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती।
चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥2॥
भावार्थ:- अथवा तपस्वियों की स्त्रियाँ वन में रहने योग्य हैं, जिन्होंने तपस्या के लिए सब भोग तज दिए हैं। हे पुत्र! जो तसवीर के बंदर को देखकर डर जाती हैं, वे सीता वन में किस तरह रह सकेंगी?॥2॥
सुरसर सुभग बनज बन चारी।
डाबर जोगु कि हंसकुमारी॥
अस बिचारि जस आयसु होई।
मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥3॥
भावार्थ:- देवसरोवर के कमल वन में विचरण करने वाली हंसिनी क्या गड़ैयों (तलैयों) में रहने के योग्य है? ऐसा विचार कर जैसी तुम्हारी आज्ञा हो, मैं जानकी को वैसी ही शिक्षा दूँ॥3॥
जौं सिय भवन रहै कह अंबा।
मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा॥
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी।
सील सनेह सुधाँ जनु सानी॥4॥
भावार्थ:- माता कहती हैं- यदि सीता घर में रहें तो मुझको बहुत सहारा हो जाए। श्री रामचन्द्रजी ने माता की प्रिय वाणी सुनकर, जो मानो शील और स्नेह रूपी अमृत से सनी हुई थी,॥4॥
कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष।
लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष॥60॥
भावार्थ:- विवेकमय प्रिय वचन कहकर माता को संतुष्ट किया। फिर वन के गुण-दोष प्रकट करके वे जानकीजी को समझाने लगे॥60॥
**मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम
श्री सीता-राम संवाद
मातु समीप कहत सकुचाहीं।
बोले समउ समुझि मन माहीं॥
राजकुमारि सिखावनु सुनहू।
आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥1॥**
माता के सामने सीताजी से कुछ कहने में सकुचाते हैं। पर मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले- हे राजकुमारी! मेरी सिखावन सुनो। मन में कुछ दूसरी तरह न समझ लेना॥1॥
आपन मोर नीक जौं चहहू।
बचनु हमार मानि गृह रहहू॥
आयसु मोर सासु सेवकाई।
सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥2॥
जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो। हे भामिनी! मेरी आज्ञा का पालन होगा, सास की सेवा बन पड़ेगी। घर रहने में सभी प्रकार से भलाई है॥2॥
क्रमश:–
सीताराम सीताराम 🙏
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? श्रीरामचरितमानस ?
॥ श्रीजानकीवल्लभो विजयते ॥
प्रथम सोपान : बालकाण्ड
☞ पोस्ट 97 ☜
अति अनूप जहँ जनक निवासू।
बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी।
सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥4॥
भावार्थ:- जहाँ जनकजी का अत्यन्त अनुपम निवास स्थान है, वहाँ के ऐश्वर्य को देखकर देवता भी स्तम्भित हो जाते हैं (मनुष्यों की तो बात ही क्या!)। राजमहल के परकोटे को देखकर चित्त चकित हो जाता है, मानो उसने समस्त लोकों की शोभा को रोक रखा है॥4॥
धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥
भावार्थ:- उज्ज्वल महलों में अनेक प्रकार के सुंदर रीति से बने हुए मणि जटित सोने की जरी के परदे लगे हैं। सीताजी के रहने के सुंदर महल की शोभा का वर्णन किया ही कैसे जा सकता है॥213॥
सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा।
भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी बिसाल बाजि गज साला।
हय गय रख संकुल सब काला॥1॥
भावार्थ:- राजमहल के सब दरवाजे सुंदर हैं, जिनमें वज्र के किवाड़ लगे हैं। वहाँ राजाओं, नटों, मागधों और भाटों की भीड़ लगी रहती है। घोड़ों और हाथियों के लिए बहुत बड़ी-बड़ी घुड़सालें और गजशालाएँ बनी हुई हैं, जो सब समय घोड़े, हाथी और रथों से भरी रहती हैं॥1॥
सूर सचिव सेनप बहुतेरे।
नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
पुर बाहेर सर सरित समीपा।
उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥2॥
भावार्थ:- बहुत से शूरवीर, मंत्री और सेनापति हैं। उन सबके घर भी राजमहल सरीखे ही हैं। नगर के बाहर तालाब और नदी के निकट जहाँ-तहाँ बहुत से राजा लोग उतरे हुए (डेरा डाले हुए) हैं॥2॥
देखि अनूप एक अँवराई।
सब सुपास सब भाँति सुहाई।
कौसिक कहेउ मोर मनु माना।
इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥3॥
भावार्थ:- (वहीं) आमों का एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकार के सुभीते थे और जो सब तरह से सुहावना था, विश्वामित्रजी ने कहा- हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाए॥3॥
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता।
उतरे तहँ मुनि बृंद समेता॥
बिस्वामित्र महामुनि आए।
समाचार मिथिलापति पाए॥4॥
भावार्थ:- कृपा के धाम श्री रामचन्द्रजी 'बहुत अच्छा स्वामिन्!' कहकर वहीं मुनियों के समूह के साथ ठहर गए। मिथिलापति जनकजी ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आए हैं,॥4॥
संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214॥
भावार्थ:- तब उन्होंने पवित्र हृदय के (ईमानदार, स्वामिभक्त) मंत्री बहुत से योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु (शतानंदजी) और अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों को साथ लिया और इस प्रकार प्रसन्नता के साथ राजा मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी से मिलने चले॥214॥
कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा।
दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे।
जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥1॥
भावार्थ:- राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। फिर सारी ब्राह्मणमंडली को आदर सहित प्रणाम किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनंदित हुए॥1॥
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा।
बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई।
गए रहे देखन फुलवाई॥2॥
भावार्थ:- बार-बार कुशल प्रश्न करके विश्वामित्रजी ने राजा को बैठाया। उसी समय दोनों भाई आ पहुँचे, जो फुलवाड़ी देखने गए थे॥2॥
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा।
लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
उठे सकल जब रघुपति आए।
बिस्वामित्र निकट बैठाए॥3॥
भावार्थ:- सुकुमार किशोर अवस्था वाले श्याम और गौर वर्ण के दोनों कुमार नेत्रों को सुख देने वाले और सारे विश्व के चित्त को चुराने वाले हैं। जब रघुनाथजी आए तब सभी (उनके रूप एवं तेज से प्रभावित होकर) उठकर खड़े हो गए। विश्वामित्रजी ने उनको अपने पास बैठा लिया॥3॥
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता।
बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति मधुर मनोहर देखी
भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥4॥
भावार्थ:- दोनों भाइयों को देखकर सभी सुखी हुए। सबके नेत्रों में जल भर आया और शरीर रोमांचित हो उठे। रामजी की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए॥4॥
क्रमश:–
सीताराम सीताराम ?
नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव ?****
???? ➣ @Sanatanodhbhav
सत्यवादी महाराज हरिश्चन्द्र ?****
त्रिशंकुके पुत्र महाराज हरिश्चन्द्र भगवती शाकम्भरीके परम भक्त एवं अद्भुत सत्यवादी थे। एक बार वे शिकार खेलनेके लिये जंगलमें गये। वहाँ उन्हें विलाप करती हुई एक सुन्दरी स्त्री मिली। महाराजके द्वारा रोनेका कारण पूछनेपर उसने कहा कि 'मैं विश्वामित्रके कारण अत्यन्त दुःखी हूँ। वे तपस्या कर रहे हैं। यदि आप मुझे सुखी करना चाहते हैं तो किसी उपायसे उन्हें तपस्यासे विरत करनेकी कृपा करें।'
महाराजने उसे आश्वस्त करके घर भेज दिया और विश्वामित्र मुनिको तपस्या करनेसे रोक दिया। महाराज हरिश्चन्द्रकी इस क्रियासे विश्वामित्र क्रोधित हो गये और वे तपस्या छोड़कर अपने स्थानको चले गये।
अपने अपमान का बदला लेनेके लिये उन्होंने भयंकर सूकरके रूपमें एक दानवको हरिश्चन्द्रके नगरमें भेजा। उस भयानक सूकरने नगरमें पहुँचकर महाराजके उपवनको उजाड़ डाला। महाराज हरिश्चन्द्रने उस भयंकर सूकरको मारनेके लिये उसका पीछा किया। वनमें पहुँचकर वह सूकर अदृश्य हो गया और महाराज मार्ग भूल गये।
अचानक एक ब्राह्मणके वेशमें विश्वामित्र प्रकट हुए और उन्होंने गान्धर्वी मायासे महाराज हरिश्चन्द्रको मोहित कर दिया। उन्होंने एक कन्या और पुत्रके विवाहके बहाने अयोध्याका सम्पूर्ण राज्य महाराज हरिश्चन्द्रसे दानमें ले लिया। दक्षिणाके लिये महाराज हरिश्चन्द्रको काशीमें पहुँचकर पत्नी तथा स्वयंको बेच देना पड़ा।
महारानी शैव्या एक ब्राह्मणकी दासी बनीं। बड़ी कठिनाईसे उस ब्राह्मणने उनके पुत्र रोहिताश्वको साथ रखनेकी अनुमति प्रदान की। महाराज हरिश्चन्द्रने अपने-आपको चाण्डालके हाथों बेचकर विश्वामित्रकी दक्षिणा चुकायी। अब वे श्मशानमें शवदाह करनेवालोंसे कर वसूला करते थे, किंतु विपत्ति यहीं समाप्त नहीं हुई।
एक दिन ब्राह्मणकी समिधा एकत्र करके लाते समय रोहिताश्व को सर्पने डॅस लिया। महारानी शैव्या पुत्रकी मृत्युका समाचार सुनकर शोक-सागरमें डूब गयीं। बहुत अनुनय-विनय करनेपर ब्राह्मणने घरका सारा काम निपटानेके बाद रात्रिमें उन्हें पुत्रके अन्त्येष्टि कर्म करनेकी अनुमति प्रदान की।
जिस समय वे अपने प्राणप्रिय पुत्रकी लाशसे लिपटकर विलाप कर रही थीं, गाँववालोंने महारानीको बच्चेको खा जानेवाली डायन समझा और उन्हें पकड़कर चाण्डालके न्यायालयमें प्रस्तुत किया। चाण्डालने हरिश्चन्द्रको ही रानीका मस्तक काटनेका आदेश दिया। शोकसे ग्रस्त महारानीने पुत्रकी लाश श्मशानमें जलानेतककी अनुमति माँगी।
घोर अन्धकारमयी रात्रिमें श्मशान पहुँचनेपर अचानक बिजली चमकी और उसके प्रकाशमें महाराज हरिश्चन्द्रने पत्नी और पुत्रको पहचान लिया। शोकसे व्याकुल होकर पति-पत्नी दोनों अचेत होकर गिर पड़े। चेत होनेपर राजा और रानी दोनोंने ही पुत्रके साथ ही आत्मदाह करनेका निश्चय किया। महाराज हरिश्चन्द्रने चिता तैयार की और उसपर अपने पुत्र रोहितको सुला दिया।
आत्मदाहके पूर्व पति-पत्नी दोनों जगत्की अधिष्ठात्री भगवती भुवनेश्वरीका ध्यान करने लगे। अचानक श्मशान दिव्य ज्योतिसे आलोकित हो उठा। भगवान् नारायणके सहित सम्पूर्ण देवता श्मशान भूमिमें पधारे। स्वर्गसे अमृतकी वर्षा हुई और रोहित स्वस्थ होकर उठ बैठे। इन्द्रने कहा- 'महाराज ! अब आप पत्नीसहित स्वर्गको सुशोभित करें। यह सर्वोत्कृष्ट गति आपके ही कर्मोंका फल है। पुण्यात्मा पुरुष ही उस पदके अधिकारी हैं।'
चाण्डालने कहा- 'राजन्! आपने अपनी सेवासे मुझे सन्तुष्ट कर दिया है। अब आप स्वतन्त्र हैं।' हरिश्चन्द्रने देखा कि उनका स्वामी चाण्डाल और कोई नहीं साक्षात् धर्मराज हैं। विश्वामित्रने अयोध्याका राज्य महाराज हरिश्चन्द्रको वापस कर दिया और कुमार रोहिताश्वका अयोध्याके राज्यपदपर अभिषेक हुआ। अन्तमें महाराज हरिश्चन्द्रने पत्नी और अयोध्याकी प्रजाके साथ स्वर्गके लिये प्रस्थान किया।
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☞ पोस्ट 96 ☜
**मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥3॥**
मुनि ने जो मुझे शाप दिया, बहुत ही अच्छा किया। मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह (करके) मानती हूँ कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ाने वाले श्री हरि (आप) को नेत्र भरकर देखा। इसी (आपके दर्शन) को शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं। हे प्रभो! मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँ, मेरी एक विनती है। हे नाथ ! मैं और कोई वर नहीं माँगती, केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे॥3॥
**जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी॥4॥**
जिन चरणों से परमपवित्र देवनदी गंगाजी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी ने सिर पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा। इस प्रकार (स्तुति करती हुई) बार-बार भगवान के चरणों में गिरकर, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा, उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या आनंद में भरी हुई पतिलोक को चली गई॥4॥
अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥211॥
प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऐसे दीनबंधु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं। तुलसीदासजी कहते हैं, हे शठ (मन)! तू कपट-जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर॥211॥
मासपारायण, सातवाँ विश्राम
""श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का जनकपुर में प्रवेश""
चले राम लछिमन मुनि संगा।
गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई।
जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥
श्री रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी थीं। महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी ने वह सब कथा कह सुनाई जिस प्रकार देवनदी गंगाजी पृथ्वी पर आई थीं॥1॥
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए।
बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया।
बेगि बिदेह नगर निअराया॥2॥
तब प्रभु ने ऋषियों सहित (गंगाजी में) स्नान किया। ब्राह्मणों ने भाँति-भाँति के दान पाए। फिर मुनिवृन्द के साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुर के निकट पहुँच गए॥2॥
पुर रम्यता राम जब देखी।
हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना।
सलिल सुधासम मनि सोपाना॥3॥
श्री रामजी ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित अत्यन्त हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और मणियों की सीढ़ियाँ (बनी हुई) हैं॥3॥
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा।
कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
बरन बरन बिकसे बनजाता।
त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥4॥
मकरंद रस से मतवाले होकर भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं। रंग-बिरंगे (बहुत से) पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं। रंग-रंग के कमल खिले हैं। सदा (सब ऋतुओं में) सुख देने वाला शीतल, मंद, सुगंध पवन बह रहा है॥4॥
सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212।
पुष्प वाटिका , बाग और वन, जिनमें बहुत से पक्षियों का निवास है, फूलते, फलते और सुंदर पत्तों से लदे हुए नगर के चारों ओर सुशोभित हैं॥212॥
बनइ न बरनत नगर निकाई।
जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी।
मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥
नगर की सुंदरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता है। सुंदर बाजार है, मणियों से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने हाथों से बनाया है॥1॥
धनिक बनिक बर धनद समाना।
बैठे सकल बस्तु लै नाना।
चौहट सुंदर गलीं सुहाई।
संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥2॥
भावार्थ:- कुबेर के समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर (दुकानों में) बैठे हैं। सुंदर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगंध से सिंची रहती हैं॥2॥
मंगलमय मंदिर सब केरें।
चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता।
धरमसील ग्यानी गुनवंता॥3॥
भावार्थ:- सबके घर मंगलमय हैं और उन पर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेव रूपी चित्रकार ने अंकित किया है। नगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुंदर, पवित्र, साधु स्वभाव वाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान हैं॥3॥
क्रमश:–
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☞ पोस्ट 90 ☜
बारेहि ते निज हित पति जानी।
लछिमन राम चरन रति मानी॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई।
प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥2॥
भावार्थ:- बचपन से ही श्री रामचन्द्रजी को अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मणजी ने उनके चरणों में प्रीति जोड़ ली। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में स्वामी और सेवक की जिस प्रीति की प्रशंसा है, वैसी प्रीति हो गई॥2॥
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी।
निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
चारिउ सील रूप गुन धामा।
तदपि अधिक सुखसागर रामा॥3॥
भावार्थ:- श्याम और गौर शरीर वाली दोनों सुंदर जोड़ियों की शोभा को देखकर माताएँ तृण तोड़ती हैं (जिसमें दीठ न लग जाए)। यों तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुण के धाम हैं, तो भी सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी सबसे अधिक हैं॥3॥
हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा।
सूचत किरन मनोहर हासा॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना।
मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥4॥
भावार्थ:- उनके हृदय में कृपा रूपी चन्द्रमा प्रकाशित है। उनकी मन को हरने वाली हँसी उस (कृपा रूपी चन्द्रमा) की किरणों को सूचित करती है। कभी गोद में (लेकर) और कभी उत्तम पालने में (लिटाकर) माता 'प्यारे ललना!' कहकर दुलार करती है॥4॥
काम कोटि छबि स्याम सरीरा।
नील कंज बारिद गंभीरा॥
नअरुन चरन पंकज नख जोती।
कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥1॥
भावार्थ:- उनके नीलकमल और गंभीर (जल से भरे हुए) मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है। लाल-लाल चरण कमलों के नखों की (शुभ्र) ज्योति ऐसी मालूम होती है जैसे (लाल) कमल के पत्तों पर मोती स्थिर हो गए हों॥1॥
रेख कुलिस ध्वज अंकुस सोहे।
नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा।
नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥2॥
भावार्थ:- (चरणतलों में) वज्र, ध्वजा और अंकुश के चिह्न शोभित हैं। नूपुर (पेंजनी) की ध्वनि सुनकर मुनियों का भी मन मोहित हो जाता है। कमर में करधनी और पेट पर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं। नाभि की गंभीरता को तो वही जानते हैं, जिन्होंने उसे देखा है॥2॥
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी।
हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर मनिहार पदिक की सोभा।
बिप्र चरन देखत मन लोभा॥3॥
भावार्थ:- बहुत से आभूषणों से सुशोभित विशाल भुजाएँ हैं। हृदय पर बाघ के नख की बहुत ही निराली छटा है। छाती पर रत्नों से युक्त मणियों के हार की शोभा और ब्राह्मण (भृगु) के चरण चिह्न को देखते ही मन लुभा जाता है॥3॥
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई।
आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे।
नासा तिलक को बरनै पारे॥4॥
भावार्थ:- कंठ शंख के समान (उतार-चढ़ाव वाला, तीन रेखाओं से सुशोभित) है और ठोड़ी बहुत ही सुंदर है। मुख पर असंख्य कामदेवों की छटा छा रही है। दो-दो सुंदर दँतुलियाँ हैं, लाल-लाल होठ हैं। नासिका और तिलक का तो वर्णन ही कौन कर सकता है॥4॥
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला।
अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे।
बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥5॥
भावार्थ:- सुंदर कान और बहुत ही सुंदर गाल हैं। मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं। जन्म के समय से रखे हुए चिकने और घुँघराले बाल हैं, जिनको माता ने बहुत प्रकार से बनाकर सँवार दिया है॥5॥
पीत झगुलिआ तनु पहिराई।
जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा।
सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥6॥
भावार्थ:- शरीर पर पीली झँगुली पहनाई हुई है। उनका घुटनों और हाथों के बल चलना मुझे बहुत ही प्यारा लगता है। उनके रूप का वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते। उसे वही जानता है, जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो॥6॥
सुख संदोह मोह पर ग्यान गिरा गोतीत।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥
भावार्थ:- जो सुख के पुंज, मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत हैं, वे भगवान दशरथ-कौसल्या के अत्यन्त प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं॥199॥
एहि बिधि राम जगत पितु माता।
कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी।
तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥
भावार्थ:- इस प्रकार (सम्पूर्ण) जगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं, जिन्होंने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोड़ी है, हे भवानी! उनकी यह प्रत्यक्ष गति है (कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनंद दे रहे हैं)॥1॥
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प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू।
जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई।
राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥
मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, परन्तु श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट हो गया॥
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☞ पोस्ट 89 ☜
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी।
जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना।
एक मास तेइँ जात न जाना॥4॥
भावार्थ:- राजभवन में जो अति कोमल वाणी से वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समय से सनी हुई पक्षियों की चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी (अपनी चाल) भूल गए। एक महीना उन्होंने जाता हुआ न जाना (अर्थात उन्हें एक महीना वहीं बीत गया)॥4॥
मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥
भावार्थ:- महीने भर का दिन हो गया। इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथ सहित वहीं रुक गए, फिर रात किस तरह होती॥195॥
यह रहस्य काहूँ नहिं जाना।
दिनमनि चले करत गुनगाना॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा।
चले भवन बरनत निज भागा॥1॥
भावार्थ:- यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। सूर्यदेव (भगवान श्री रामजी का) गुणगान करते हुए चले। यह महोत्सव देखकर देवता, मुनि और नाग अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने घर चले॥1॥
औरउ एक कहउँ निज चोरी।
सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
काकभुसुंडि संग हम दोऊ।
मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥2॥
भावार्थ:- हे पार्वती! तुम्हारी बुद्धि (श्री रामजी के चरणों में) बहुत दृढ़ है, इसलिए मैं और भी अपनी एक चोरी (छिपाव) की बात कहता हूँ, सुनो। काकभुशुण्डि और मैं दोनों वहाँ साथ-साथ थे, परन्तु मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई जान न सका॥2॥
परमानंद प्रेम सुख फूले।
बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
यह सुभ चरित जान पै सोई।
कृपा राम कै जापर होई॥3॥
भावार्थ:- परम आनंद और प्रेम के सुख में फूले हुए हम दोनों मगन मन से (मस्त हुए) गलियों में (तन-मन की सुधि) भूले हुए फिरते थे, परन्तु यह शुभ चरित्र वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो॥3॥
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा।
दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा।
दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥4॥
भावार्थ:- उस अवसर पर जो जिस प्रकार आया और जिसके मन को जो अच्छा लगा, राजा ने उसे वही दिया। हाथी, रथ, घोड़े, सोना, गायें, हीरे और भाँति-भाँति के वस्त्र राजा ने दिए॥4॥
मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥
भावार्थ:- राजा ने सबके मन को संतुष्ट किया। (इसी से) सब लोग जहाँ-तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे कि तुलसीदास के स्वामी सब पुत्र दीर्घायु हों॥196॥
कछुक दिवस बीते एहि भाँती।
जात न जानिअ दिन अरु राती॥
नामकरन कर अवसरु जानी।
भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1॥
भावार्थ:- इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते। तब नामकरण संस्कार का समय जानकर राजा ने ज्ञानी मुनि श्री वशिष्ठजी को बुला भेजा॥1॥
करि पूजा भूपति अस भाषा।
धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा।
मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥2॥
भावार्थ:- मुनि की पूजा करके राजा ने कहा- हे मुनि! आपने मन में जो विचार रखे हों, वे नाम रखिए। (मुनि ने कहा-) हे राजन्! इनके अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूँगा॥2॥
जो आनंद सिंधु सुखरासी।
सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुखधाम राम अस नामा।
अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥
भावार्थ:- ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है॥3॥
बिस्व भरन पोषन कर जोई।
ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा।
नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥
भावार्थ:- जो संसार का भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम 'भरत' होगा, जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध 'शत्रुघ्न' नाम है॥4॥
लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ठ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥
भावार्थ:- जो शुभ लक्षणों के धाम, श्री रामजी के प्यारे और सारे जगत के आधार हैं, गुरु वशिष्ठजी ने उनका 'लक्ष्मण' ऐसा श्रेष्ठ नाम रखा है॥197॥
धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी।
बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना।
बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥
भावार्थ:- गुरुजी ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे (और कहा-) हे राजन्! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात् परात्पर भगवान) हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होंने (इस समय तुम लोगों के प्रेमवश) बाल लीला के रस में सुख माना है॥1॥
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☞ पोस्ट 83 ☜
""पृथ्वी और देवतादि की करुण पुकार""
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा।
जे लंपट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा।
साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥1॥
भावार्थ:- पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते थे॥1॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी।
ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी।
परम सभीत धरा अकुलानी॥2॥
भावार्थ:- (श्री शिवजी कहते हैं कि-) हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि, अनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो गई॥2॥
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही।
जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।
सकल धर्म देखइ बिपरीता।
कहि न सकइ रावन भय भीता॥3॥
भावार्थ:- (वह सोचने लगी कि) पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वाला) लगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती॥3॥
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी।
गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज संताप सुनाएसि रोई।
काहू तें कछु काज न होई॥4॥
भावार्थ:- (अंत में) हृदय में सोच-विचारकर, गो का रूप धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब देवता और मुनि (छिपे) थे। पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुःख सुनाया, पर किसी से कुछ काम न बना॥4॥
सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
भावार्थ:- तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोक) को गए। भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रह्माजी सब जान गए। उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। (तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि-) जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है॥
धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184॥
भावार्थ:- ब्रह्माजी ने कहा- हे धरती! मन में धीरज धारण करके श्री हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे॥184॥
बैठे सुर सब करहिं बिचारा।
कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई।
कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥1॥
भावार्थ:- सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पावें ताकि उनके सामने पुकार (फरियाद) करें। कोई बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं॥1॥
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती।
प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ।
अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥2॥
भावार्थ:- जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ (उसके लिए) सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। हे पार्वती! उस समाज में मैं भी था। अवसर पाकर मैंने एक बात कही-॥2॥
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं।
कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥
भावार्थ:- मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों॥3॥
अग जगमय सब रहित बिरागी।
प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
मोर बचन सब के मन माना।
साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥
भावार्थ:- वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है), वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ाई की॥4॥
सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥
भावार्थ:- मेरी बात सुनकर ब्रह्माजी के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे॥185॥
क्रमश:–
सीताराम सीताराम ?
नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव ?****
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