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जय श्री कृष्ण 🚩
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!

प्रवचन दिनांक 6 जून 2003 प्रातः 5:00 बजे ।

’विषय - भगवान् सर्वत्र व्याप्त’ ’है’ ।

प्रवचन के कुछ भाव, इस प्रवचन का ऑडियो भिजवाया जा रहा है, इन भावों को समझने के लिए इस प्रवचन को जरूर सुनना चाहिए ।

हमारे परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी की वाणी बहुत विलक्षण है, दिव्य (परम वचन) है, श्री स्वामी जी महाराज जी की’ ’वाणी सुनने से हृदय में प्रकाश आता है, इसलिए प्रतिदिन जरूर सुननी चाहिए ।’

परम श्रद्धेय स्वामी जी महाराज जी कह रहे हैं कि दो बात खास हैं - एक तो परमात्मा कण कण में व्याप्त हैं, सब जगह विराजमान हैं । दूसरी बात है - मैं भगवान् का अंश हूं । यह दो बात समझ में भी नहीं आवे तो भी मान लो तो आपकी आध्यात्मिक उन्नति सरलता से, सहजता से हो जाएगी । तीसरी बात है आप जहां हो वहां पूरे के पूरे परमात्मा हैं । जो पूरे के पूरे परमात्मा हैं उन्हें बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है । जप, ध्यान, स्वाध्याय करते रहो पर बाहर ढूंढने की जरूरत नहीं है । जहां अपन हैं वहां ही परमात्मा पूरे के पूरे हैं । यह तीसरी बात है । फिर आपको अपने में ही पूरे के पूरे परमात्मा दीखेंगे । तो मैं परमात्मा का हूं और परमात्मा ही मेरे अपने हैं । मैं परमात्मा का सनातन अंस हूं । ममैवांशो जीव लोके ...... । भगवान् ने कहा है मेरा ही अंश है । शरीर मां-बाप का अंश है, पर ये भगवान् का ही अंश है । जैसे सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा हैं, ऐसे ही यह (जीव) आनंद स्वरूप है ।

’ईश्वर अंस जीव अबिनाशी ।’
’चेतन अमल सहज सुख राशि’ ।।

एक बार ही स्वीकार करना है, बार-बार अभ्यास की जरूरत नहीं है । आप जब विवाह करते हो तो यह बार-बार अभ्यास नहीं करना पड़ता कि मैं विवाहित हूं । तो एक बार ही दृढ़ता पूर्वक स्वीकार कर लें - मैं भगवान् का ही हूं, जैसे मां-बाप को मानते हैं । मां-बाप को देखा हो तो बताओ ? पिता के समय तो पानी की बूंद थे । मां के पेट में शरीर बन गया था तो भी मां को नहीं जान सकते, मानते हैं । मैं केवल ईश्वर का हूं । सब की सेवा करूंगा । परमात्मा का अंश हूं, मेरी जगह पूरे के पूरे परमात्मा हैं । जैसे परमात्मा हैं, वैसे ही मैं हूं । भगवान् कहते हैं मेरा ही अंश है । परमात्मा ही मेरे हैं और कोई मेरा नहीं है । सेवा सबकी करूंगा । किसी को दु:ख नहीं पहुंचाएंगे, सेवा सबकी करेंगे । पर मेरा केवल परमात्मा ही है । राम मरे तो मैं मरू । देखो एक आश्रय होता है, आश्रय केवल भगवान् का । करना कुछ नहीं । मैं भगवान् का हूं, भगवान् ही मेरे हैं । फिर विश्राम है । सांसारिक काम करने से होता है, भगवान् विश्राम से मिलते हैं । करना कुछ नहीं है । जप करो, ध्यान करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो इस सिद्धि के लिए करो । जैसे कन्या का गोत्र पति का गोत्र हो जाता है, पिता का गोत्र नहीं रहता । ऐसे आप भगवान् के हो । इस योग्यता की प्राप्ति के लिए जप, ध्यान, स्वाध्याय, सत्संग करना है । मेरा संबंध भगवान् के साथ ही है । आप भगवान् के हैं । एकदम सीधी सरल बात है । यह दो बात हैं - भगवान् का हूं और भगवान् ही मेरे हैं । अहंकार मिटने से परमात्मा की जरूरत पूरी हो जाती है और संसार की भूख मिट जाती है । निर्मम निरहंकार होने से ब्राह्मी स्थिति हो जाती है । तो आवश्यकता तो पूरी हो गई और कामना मिट गई । भोजन मिलता है तो संतोष होता है, वस्त्र मिलता है तो संतोष होता है, आदर मिलता है तो संतोष होता है, तो यह कामना है । भूख लगे तो शाक पत्ती खाकर पेट भर लिया । यह आवश्यकता है और स्वाद के लिए नींबू मिल जाए, थोड़ी चटनी मिल जाए, थोड़ी मिर्ची मिल जाए, थोड़ी खटाई मिल जाए - यह कामना है । तो अपने खड्डा (पेट भरना) है । अन्न दे देना और कामना नहीं रखनी । संसार की कामना कामना है और भगवान् की आवश्यकता होती है । पेट भरना है अन्न दे देना है, यह आवश्यकता है । पर नींबू चाहिए, खटाई चाहिए, चटनी चाहिए, यह कामना है । जैसे कामना की पूर्ति में रस लेते हो, ऐसे सत्संग में, भजन में, जप में रस आने लगे तो कामना मिट जाती है । एक साधारण नौकर की बात सुना रहे हैं कि वह काम करते-करते सीताराम सीताराम रटता रहता था । तो कामना मिट जाती है । देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव । रुखा सूखा खाय कर ठंडा पानी पीव ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!!!

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नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!!!

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श्री गीताप्रेस सत्संग:
राम ! राम !! राम !!! राम !!!!

प्रवचन दिनांक 26 जुलाई 1991 प्रातः 5:00 बजे ।

विषय - हम प्रतिक्षण मर रहे हैं ।’

प्रवचन के कुछ भाव, इस प्रवचन का ऑडियो कल रात्रि भिजवाया गया था । इन भावों को समझने के लिए इस प्रवचन को जरूर सुनना चाहिए ।

हमारे परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी की वाणी बहुत विलक्षण है, दिव्य (परम वचन) है, श्री’ ’स्वामी जी महाराज जी की वाणी सुनने से हृदय में प्रकाश’ ’आता है, इसलिए प्रतिदिन जरूर सुननी चाहिए’ ।

परम श्रद्धेय स्वामी जी महाराज जी कह रहे हैं कि देखो पहले परमात्मा ही थे, पीछे एक परमात्मा ही रहेंगे । बीच में यह संसार दीख रहा है । जैसे हमारा शरीर पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा और बीच में दीखता है, तो पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा । और परमात्मा पहले भी थे, पीछे भी परमात्मा रहेंगे और अब भी परमात्मा हैं । शरीर पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा और अब भी नहीं में ही जा रहा है । हम जी नहीं रहे हैं, मर रहे हैं, सच्ची बात है ।
कैसे ?
मानो जिसको 80 वर्ष आने थे । 40 वर्ष का हो गया, तो 40 वर्ष मर गया । नाराज मत होना । अब 40 वर्ष का हो गया तो घट रहा है कि बढ़ रहा है ? मानो घट रहा है । और एक वर्ष बीत गया तो 39 वर्ष ही रहा । इसमें कोई शंका है क्या ? एक आदमी के जीवन में धन आया धनी बन गया । पहले धनी नहीं था । समझो उसके तीस वर्ष धन रहने वाला है और एक वर्ष हो गया तो तीस वर्ष रहे क्या धनी पने के ? अब 29 वर्ष रहे । तो धनवत्ता बढ़ रही है कि घट रही है । ऐसे हमारे जीवन का समय घट रहा है, कि बढ़ रहा है ! हम मर रहे हैं यह सच्ची बात है । और जो परमात्मा सत्य युग में थे वही आज हैं, और आगे रहेंगे । और संसार है, मरने वाले हैं । पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमान में भी नहीं में ही जा रहे हैं । तो नहीं ही रहा । आप पहले भी थे, आगे भी रहेंगे और अब भी हैं । और हम (शरीर) नहीं में जा रहे हैं । इसमें कोई संदेह हो तो पूछो ? मानना और होता है जानना और होता है । तो जानो यह बात ठीक है न । ठीक है उसको आदर देना है । जैसा का जैसा जानना है ज्ञान और जैसा है वैसा न मानना है अज्ञान । संसार
पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा, प्रतिक्षण नहीं में जा रहा है । देखो सत्संग में आए, सत्संग करते हैं, तो सत्संग हो रहा है । इसमें समय गया तो सत्संग का पूरा समय नहीं बचा । तो सत्संग गया न । सब संसार जा रहा है, यह सत्संग का मौका भी जा रहा है । चातुर्मास कर रहे हैं । दो माह करेंगे, अब 4 दिन बीत गया तो 4 दिन कम हो गए । तो संसार मात्र नहीं में ही जा रहा है और परमात्मा पहले भी थे, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे ।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत्:’ । असत् का भाव विद्यमान नहीं है । सत् का अभाव नहीं है । संसार जा रहा है, तो क्या करें ? तो सेवा करो, हम तो नहीं रहेंगे - तो यह चीज, वस्तु, धन-संपत्ति हमारे काम आएंगे नहीं । तो सेवा करो । सबका उद्धार हो, सबका कल्याण हो, सबका हित हो । जैसे सत्संग नहीं करते तो अब सत्संग शुरू कर दो । चार दिन तो हो गए इतना तो गया, इस घाटे की पूर्ति तो हो नहीं सकतीं । तो क्या कर सकते हैं ? अगाड़ी घाटा नहीं होने देंगे । बाद में पछताओगे, पछताओगे । गया हुआ समय नहीं आएगा। अभी वर्तमान में देखते-देखते चला गया यह । आएगा नहीं । बचपना चला गया, वापस आएगा नहीं । जैसे नल 2 घंटे आता है, तो पानी ले लो, फिर चला जाएगा । ऐसे गया वक्त आएगा नहीं, यह जा रहा है । बाद में आएगा नहीं । कल्याण के लिए काम करो तो ठीक है, विषय के लिए करोगे तो खराब है । यह तो अन्य योनियों कुकर, सुकर में भी हो जाएगा । वहां (उस योनि में) बच्चा- बच्ची, लड़ाई, सोना हो जाएगा । यह दो हाथ सेवा के लिए हैं, फिर पैर में बदल जाएंगे । तो जब तक मौत न आए तब तक कर लो । मनुष्य योनि में जो लाभ लेना है, वह अभी ले लो । सोना, खाना-पीना, बाल बच्चे, उस योनि में भी होता है । इस योनि में भी हो होता है । पर उस योनि मैं कल्याण नहीं हो सकते । कल्याण इस योनि में ही हो सकता है, नहीं तो मनुष्य योनि क्या हुई ? अगर यह समय खराब कर दिया तो मनुष्य जन्म की क्या सार्थकता रही ? भजन करो, कीर्तन करो, पाठ करो, यह मौका इस मनुष्य जन्म में ही है । बच्चों का होना, खाना- पीना, सोना तो पशु बन जाओगे तो वहां भी हो जाएगा । जो काम और जगह नहीं हो सकता, इस जगह (मनुष्य योनि) में ही हो सकता है, वह पहले करो । सेवा करो । हाथों की जगह पैर आ गए, तो सेवा कैसे होगी ? दान कैसे करोगे ? हाथ की जगह पैर आ गए । मनुष्य जन्म सफल नहीं हुआ । सत्संग का मौका मिला तो सत्संग कर लेना चाहिए । यह तो मौका है, अवसर है । समय चूकि पुनि का पछताने !
सत्संग कर सकते हैं, सत्संग की बातें समझ सकते हैं । मेरे तो मन में बात आती है कि किससे पूछें ? जिनसे पूछना था, वह तो चले गए । तो यह सत्संग का मौका है ।

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।।श्रीहरि:।।

लक्ष्मी जी को वश में करने का उपाय

हमारी धारणा है कि साफ सजे हुए घरमें लक्ष्मीदेवी आती हैं, बात ठीक है परन्तु लक्ष्मीजी सदा ठहरती क्यों नहीं ? *इसीलिये कि हमारी सफाई और सजावट केवल बाहरी होती है और फिर वे ठहरीं भी चंचला, उन्हें बाँध रखनेका कोई साधन हमारे पास नहीं है ।

🪷 हाँ, एक उपाय है, जिससे वह सदा ठहर सकती हैं । केवल ठहर ही नहीं सकतीं, हमारे मना करनेपर भी हमारे पीछे-पीछे डोल सकती हैं । वह उपाय है उनके पति श्रीनारायणदेवको वशमें कर भीतर-से-भीतरके गुप्त मन्दिरमें बंद कर रखना । फिर तो अपने पतिदेव के चारू चरण-चुम्बन करनेके लिये उन्हें नित्य आना ही पड़ेगा । हम द्वार बंद करेंगे तब भी वह आना चाहेंगी, जबरदस्ती घरमें घुसेंगी । किसी प्रकार भी पिण्ड नहीं छोड़ेंगी । इतनी माया फैलावेंगी कि जिससे शायद हमें तंग आकर उनके स्वामीसे शिकायत करनी पड़ेगी । जब वे कहेंगे तब मायाका विस्तार बंद होगा । तब भी देवीजी जायँगी नहीं, छिपकर रहेंगी । पतिको छोड़कर जायँ भी कहाँ ? चंचला तो बहुत हैं परन्तु हैं परम पतिव्रता-शिरोमणि ! स्वामीके चरणोंमें तो अचल होकर ही रहती हैं । अवश्य ही फिर ये हमें तंग नहीं करेंगी । श्रीके रूपमें सदा निवास करेंगी ।*

परम पूज्य भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार...

नारायण! नारायण! नारायण! नारायण!

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दीपावली के पावन और प्रकाशमय पर्व की आपको ओर आपके परिवार को हार्दिक शुभकामनाएं।
प्रभु श्री राम और मां लक्ष्मी की कृपा से आपको सुख और समृद्धि प्राप्त हो।
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॥ श्रीहरिः ॥
प्रेम होनेके उपाय

तुमने भगवान् में प्रेम होनेका उपाय पूछा सो ठीक है, प्रेम होनेके बहुत-से उपाय हैं, जिनमें कुछ लिखे जाते हैं-

१.भगवद्भक्तोंद्वारा श्रीभगवान् के गुणानुवाद और उनके प्रेम तथा प्रभावकी बातें सुननेसे अति शीघ्र प्रेम हो सकता है। भक्तोंके संगके अभावमें शास्त्रोंका अभ्यास ही सत्संगके समान है।

२.श्रीपरमात्माके नामका जप निष्कामभावसे और ध्यानसहित निरन्तर करनेके अभ्याससे भगवान् में प्रेम हो सकता है।

३.श्रीपरमात्माके मिलनेकी तीव्र इच्छासे भी प्रेम बढ़ सकता है।

४.श्रीपरमात्माके आज्ञानुकूल आचरणसे उनके मनके अनुसार चलनेसे उनमें प्रेम हो सकता है। शास्त्रकी आज्ञाको भी परमात्माकी आज्ञा समझनी चाहिये।

५.भगवान् के प्रेमी भक्तोंसे सुनी हुई और शास्त्रोंमें पढ़ी हुई श्रीपरमात्माके गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातें निष्कामभावसे लोगोंमें कथन करनेसे भगवान् में बहुत महत्त्वका प्रेम हो सकता है।

उपर्युक्त पाँचों साधनोंमेंसे यदि एकका भी भलीभाँति आचरण किया जाय तो प्रेम होना सम्भव है।

–श्रद्धेय श्री जयदयालजी गोयन्दका (सेठजी)
–‘उद्धार कैसे हो ?’ गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तकसे साभार

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।।श्रीहरिः।।

_प्रश्‍न‒आप कहते हैं कि गुणसंगके कारण ही असंख्य जन्म-मरण होते आये हैं, तो क्या गुणसंग इतना प्रबल है ?_

स्वामीजी‒ गुणसंग तभी प्रबल होता है, जब आप उसे पकड़ते हो । पकड़नेका कारण है‒सुखासक्‍ति । स्टेशनपर खड़ी गाडीपर चढ़ जायँ तो गाड़ी बड़ी प्रबल है, ले ही जायगी ! परन्तु गाडीपर चढ़ें ही नहीं तो वह कैसे ले जायगी ?

_प्रश्‍न‒जीव भगवान्‌को छोड़कर खिलौनों (सांसारिक भोगों)-में कैसे फँस गया ?_

स्वामीजी‒ उसे खेलमें थोड़ा न्यारा रस मिल गया तो उसीमें फँस गया !

_प्रश्‍न‒क्या विषयोंमें भी रस है ?_

स्वामीजी‒ हाँ है, तभी कहा है‒‘यत्तदग्रेऽमृतोपमम्’ (गीता १८ । ३८) ‘जो सुख आरम्भमें अमृतकी तरह है’ । परन्तु परिणाममें वह विषकी तरह है‒‘परिणामे विषमिव’ (गीता १८ । ३८) !

_प्रश्‍न‒हम बाजारमें जाते हैं तो घरके लिये अपनी पसन्दगीके अनुसार वस्तु खरीदते हैं, यह भी बाँधनेवाली है क्या ?_

स्वामीजी‒ यह पसन्दगी यदि अपने सुखभोगके लिये है तो बन्धनकारक है, और यदि उपयोगकी दृष्‍टिसे अथवा सभ्यता रखनेकी दृष्‍टिसे है तो बन्धनकारक नहीं है । वस्तु भले ही बढ़िया, सुन्दर, घरकी सजावटकी दृष्‍टिसे आकर्षक देखकर खरीदे, पर समता रखकर खरीदे, अपने सुखभोगके लिये नहीं । इसकी पहचान यह है कि यदि वह वस्तु नष्‍ट हो जाय तो हृदयपर असर न पड़े ।


श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_

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  • श्री हरि:
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    ज्ञान के दीप जले
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    शास्त्रों में नामजप और सत्संग की बहुत महिमा गायी है । शरीर-संसार को अपना मानना कुसंग है । जो अपना नहीं है, उसे अपना स्वीकार न करना भी सत्संग है और जो अपना है, उसे अपना स्वीकार करना भी सत्संग है। जो अपना नहीं है, उसे अपना मानना भी कुसंग है और जो अपना है, उसे अपना न मानना भी कुसंग है।
    संसार का वियोग नित्य है, संयोग अनित्य है । संसार से वियोग को स्वीकार करते ही परमात्मा के योग का अनुभव हो जायगा।
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    गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित परम श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदास जी महाराज की पुस्तक “ज्ञान के दीप जले” – १४८५ से |
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2 Monate her

।।श्रीहरि:।।

बोध कथा -व्यर्थ वस्तुकी खोज

एक ऋषिके पास एक युवक ज्ञानके लिये पहुँचा। ज्ञान प्राप्तिके बाद युवकने गुरु-दक्षिणा देनी चाही। गुरु भी अद्भुत थे। उन्होंने गुरु-दक्षिणाके रूपमें वह चीज माँगी, जो बिलकुल व्यर्थ हो। शिष्य व्यर्थ चीजकी खोजमें चल पड़ा।

व्यर्थ समझकर जब शिष्यने मिट्टीकी ओर हाथ बढ़ाया तो मिट्टी चीख पड़ी, 'तुम मुझे व्यर्थ समझते हो ? धरतीका सारा वैभव मेरे गर्भसे ही प्रकट होता है। यह विविध रूप, रस, गन्ध क्या मुझसे ही उत्पन्न नहीं होते ?'

घूमते-घूमते उस युवकको गन्दगीका ढेर मिला, जिसके लिये मनमें घृणाके भाव थे। उसने गन्दगीकी तरफ हाथ बढ़ाया, तभी गन्दगीसे आवाज आयी, 'क्या मुझसे बढ़िया खाद धरतीपर मिलेगी? सारी फसलें मेरेसे ही प्राण और पोषण पाती हैं। ये अन्न, फल सब मेरे ही रूप हैं, फिर भी तुम मुझे व्यर्थ समझ रहे हो!'

वह सोचने लगा- 'मिट्टी और गन्दगीका ढेर भी इतने मूल्यवान् हैं, तब भला व्यर्थ क्या हो सकता है!' तभी उसके मनमें आवाज आयी कि सृष्टिका हर पदार्थ अपनेमें उपयोगी है।
👉 व्यर्थ और तुच्छ तो वह है, जो दूसरोंको व्यर्थ तुच्छ समझता है। वह अहंकारके सिवा और क्या हो सकता है? शिष्य गुरुके पास गया और क्षमा माँगते हुए कहा कि वह दक्षिणामें अहंकार देने आया है।

यह सुनकर गुरु प्रसन्न भावसे बोले, 'ठीक समझे हो वत्स ! अहंकारके विसर्जनसे ही विद्या सार्थक और फलवती होती है।'

नारायण! नारायण!नारायण! नारायण!

2 Monate, 1 Woche her
दैनिक पंचांग: 17.10.2024

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