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𖠺𝑐𝑜𝑛𝑓𝑖𝑒 𝑛𝑎𝑞𝑢𝑒𝑙𝑒 𝑞𝑢𝑒 𝑒𝑠𝑐𝑟𝑒𝑣𝑒 𝑜𝑠 𝑡𝑒𝑢𝑠 𝑑𝑖𝑎𝑠𖠺 (🅓🅔🅤🅢)🥀
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Photo from Sadhak Das
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राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
नाशवान् चीज अपने पास पड़ी है, यह वहम् है, और वह जा रही है - यह सच्ची बात है ।
परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी द्वारा विरचित ग्रंथ गीता प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित स्वाति की बूंदें पृष्ठ संख्या ५०
राम ! राम !! राम !!! राम !!!!
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राम।।?
..बातें कहने-सुनने से काम नहीं होगा..✨
श्रोता-- संसारमें भगवान्को कैसे देखा जाय ?
स्वामीजी-- पहले आप इस बातको सोचें कि हमें जीवनमें क्या करना है? हमें परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है, ऐसा विचार होनेपर ही यह बात ठीक समझमें आयेगी। जबतक अपना विचार परमात्मप्राप्तिका नहीं होगा, तबतक बातें कहने-सुननेसे काम नहीं होगा, कोई उपाय काम नहीं देगा।
परमात्मप्राप्तिकी जोरदार अभिलाषा होनेपर ही उपाय काम देते हैं, नहीं तो बढ़िया-से-बढ़िया उपाय भी काम नहीं देगा। विचार करके देखो, भगवान् के कई अवतार हो गये, कई अच्छे-अच्छे सन्त-महात्मा हो गये, पर अभीतक हमारा कल्याण नहीं हुआ ! इसका कारण यह नहीं है कि भगवान्के अवतारोंमें अथवा सन्त-महात्माओंमें कोई कमी थी। वास्तवमें हमारी ही इच्छा जोरदार नहीं थी। यह मूल बात है। आदमी बिना भूखके भोजन नहीं कर सकता। भोजन बहुत बढ़िया हो, पर भूख नहीं हो तो उसका क्या करें !
राम !....................राम!!....................राम !!!
परम् श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदास जी महाराज, नये रास्ते, नयी दिशाएँ पृ०-१०३
।। श्रीहरि ।।
किसी सन्त के पास जाओ तो कम-से-कम उनके मन के विरुद्ध काम मत करो । इससे कभी लाभ नहीं होगा, उल्टे हानि होगी । लाभ सन्त की प्रसन्नता से होता है, उनके मन के विरुद्ध काम करने से नहीं । उनके मन के विरूद्ध काम करेंगे तो वह अपराध होगा, जिसका दण्ड भोगना पड़ेगा । उनका कहना नहीं मानो तो कम-से-कम उनके विरूद्ध तो मत चलो । हम सन्त से जबर्दस्ती लाभ नहीं ले सकते, प्रत्युत उनकी प्रसन्नता से लाभ ले सकते हैं । लाभ सन्त की प्रसन्नता में है, उनके चरणों में नहीं ।
'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से, पृष्ठ-संख्या- ८६, गीता प्रकाशन, गोरखपुर
परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
ॐ श्री परमात्मने नमः
_प्रश्न‒गीतामें आया है‒‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ (गीता २ । ४०) । अगर थोड़ी भी समता, निष्कामभाव कल्याण कर दे तो फिर पूरेकी क्या जरूरत है ?_
स्वामीजी‒ इसमें थोड़े-ज्यादाकी बात नहीं है । समताके टुकड़े नहीं होते । इसका तात्पर्य है कि जितनी समता आ गयी, उतनी समता स्थिर रहेगी, उसका कल्याणके सिवाय और कोई फल नहीं होगा । उस थोडी समताका भी नाश नहीं होगा ।
_प्रश्न‒गीतामें आया है‒‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ (गीता २ । ४०) । यदि स्वल्प होते हुए भी समता महान् है, पूरी-की-पूरी है, तो फिर तत्काल कल्याण हो जाना चाहिये ? थोड़ा-सा भी निष्कामभाव आते ही कल्याण हो जाना चाहिये ? अगर देरी लगती है तो इससे ऐसा दीखता है कि तत्काल कल्याण न होकर क्रमसे कल्याण होता है ?_
स्वामीजी‒ ‘महतो भयात्’ को अर्थात् असत्को सत्ता देनेसे ही देरी लगती है‒‘क्रममुक्ति’ होती है । यदि सर्वथा सत्ता न दें तो तत्काल कल्याण है‒‘सद्योमुक्ति’ है ।
_प्रश्न‒दियासलाई छोटी होती है । जब वह रुईको जलाती है, तब रुई खुद जलकर जलनेमें सहायता करती है‒इसका तात्पर्य ?_
स्वामीजी‒ क्रिया भले ही छोटी हो, पर निष्कामभाव पूरा होना चाहिये, तभी ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ होगा । जैसे रुई ही अग्नि बन जाती है, ऐसे ही तत्त्वज्ञान होनेके बाद निष्ठा अपने-आप होती है, उसके लिये प्रयत्न नहीं करना पड़ता ।
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श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
_(‘रहस्यमयी वार्ता’ पुस्तकसे)_
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॥ सन्तवाणी ॥–श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं !
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