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SK Result
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जो पार्थिव शिवलिंगका निर्माण करके जीवनपर्यन्त नित्य उसका पूजन करता है, वह शिवलोक प्राप्त करता है। वह असंख्य वर्षोंतक भगवान् शिवके सान्निध्यमें शिवलोकमें वास करता है और कोई कामना शेष रहनेपर वह भारतवर्षमें सम्राट् बनता है।
[ शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्गं तु पार्थिवम् । यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम् ॥
मृडेनाप्रमितान्वर्षाञ्छिवलोके हि तिष्ठति । सकामः पुनरागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत् ॥]
श्रीरुद्र रुद्र रुद्र,
कलियुग में सभी सम्प्रदायों को भगवान शिव की पूजा अवश्य ही करणीय है।
शम्भोराराधनसमं नास्ति कमं कलौ युगे।
शाक्तो वा वैष्णवः शैवः पूर्वं सम्पूज्य शंकरम्॥ ९३॥
पश्चात्प्रपूजयेत्स्वेष्ठदेवतां भक्तिभावतः।
आदौ लिङ्गप्रपूज्येत बिल्वपत्रैश्च नारद।
अन्यथा शूद्रवत्सर्वं शिवपूजां विना कृतम्॥ १४॥
इस कलियुगमें भगवान् शिवको आराधनाके समान कोई सत्कर्म नहीं है। शाक्त, वैष्णव अथवा शैवों को पूर्व में भगवान् शंकरकी पूजा करके तब भक्तिपूर्वक अपने इष्ट देवताकी पूजा करनी चाहिये। नारद! प्रारम्भ में बिल्वपत्रों से शिवलिङ्गकी पूजा करनी चाहिये; क्योकि भगवान् शिवकी पूजाके बिना किया हुआ सभी कर्म शूद्रके द्वारा अनुष्ठित कर्मके समान हो जाता है॥
अर्थात जिस प्रकार शूद्र द्वारा किये गये अनुष्ठान का फल नहीं होता उसी प्रकार वह भी फलहीन होता है।
शिवलिङ्गनिर्माल्य प्रथम श्रीविष्णुजी को निवेदित करें।, शालग्राम से स्पर्श करें तब उसे ग्रहण करें।
अग्राह्यं तन्महाबुद्धे प्रसादं नापि भक्षयेत्।
विष्णोर्ग्राह्मं च नान्यस्य ग्रहणाद्विष्णुकोपभाक् ॥
शालग्रामशिलास्पर्शात्सर्व तद्राह्यमेव च।
महाबुद्धे! भगवान् शंकर का निर्माल्य ओर प्रसाद अग्राह्य हो जाता है, चण्डाधिकार के कारण, उसका भक्षण नहीं करना चाहिये । केवल विष्णुभगवान् को ही वह प्रसाद ग्राह्य होता हे, अन्यका नही । उसे ग्रहण करने से वह भगवान् विष्णुका कोप भाजन होता है ॥ शालग्राम शिला को उस निर्माल्य आदि से स्पर्श कराने से वह शिवनिर्माल्य भी ग्राह्य हो जाता है।
विष्णुजी ही परमशैव हैं उनके द्वारा प्रथम लिङ्ग पर चढा प्रसाद ग्रहण हो जाने पर वह सबके ग्रहण योग्य हो जाता है। प्रत्येक शिवभक्त को विष्णुजी का पूजन अवश्य ही करना चाहिए।
~ Acharya Rajesh Benjwal
जगत्पवित्रं हरिनामधेयं, क्रियाविहीनं न पुनाति जन्तुम् ।
भगवान् श्रीहरि का नामाऽमृत भी शास्त्र- विहितकृत्य-परिपालन तथा शास्त्रनिषिद्ध कृत्य परिवर्जनपूर्वक ही सेबित हुआ पूर्णतया लाभप्रद होता है।
Some more points on kalivarjya-
शूद्रेषुदासगोपालकुलमित्रार्द्धसीरिणाम् ।
शूद्रों में दास गोपाल हल जोतने वालों के अन्नों का भोजन।
ब्राह्मणादिषु शूद्रस्य पचनादिक्रियापि च।
ब्राह्मणादि के यहाँ शूद्र के द्वारा भोजन का निर्माण।
Following things must be carefully noted and observed-
Kalivarjya - practises not to be followed in modern times.
The following practices, which were regarded as good or unobjectionable in earlier times but which should not be followed in the modern age, are mentioned in the Brihan- naradiya and Aditya Puranas. "Sea-voyage, inter-caste marriage, levirate, slaughter of cattle in honour of distinguished guests and at funeral rites, remarriage of women, taking to asceticism in old age, continuance of Brahmacharya for a long time, putting an end to life in old age, killing a Brahman enemy in a duel, shortening the period of cere- monial impurity for the sake of study, making penances ending in death, acknowledgment of any sons excepting those begotten by self and the adopted ones, taking the food of even select Sudras such as the domestic servant, cowherd, family friend and cultivating partner, employment of Sudra cooks by Brahmans, making sacrifices with human or bovine victims, etc
आर्य समाज का योगदान-
जिन बुराइयों के कारण हिन्दू–धर्म का ह्रास हो रहा था तथा अन्य धर्मों के लोग जिन दुर्बलताओं का लाभ उठाकर हिन्दुओं को ईसाई बना रहे थे, उन बुराइयों को स्वामीजी ने अवश्य दूर किया, जिससे हिन्दुओं के सामाजिक संगठन में वही दृढ़ता आ गई जो इस्लाम में थी। स्वामीजी ने छुआछूत के विचार को अवैदिक बताया और उनके समाज ने सहस्रों अन्त्यजों को यज्ञोपवीत देकर उन्हें हिन्दुत्व के भीतर आदर का स्थान दिया। आर्य–समाज ने नारियों की मर्यादा में वृद्धि की एवं उनकी शिक्षा–संस्कृति का प्रचार करते हुए विधवा–विवाह का भी प्रचलन किया। कन्या–शिक्षा और ब्रह्मचर्य का आर्य–समाज ने इतना अधिक प्रचार किया कि हिन्दी–प्रान्तों में साहित्य के भीतर एक प्रकार की पवित्रतावादी भावना भर गई और हिन्दी के कवि कामिनी–नारी की कल्पना मात्र से घबराने लगे। पुरुष शिक्षित और स्वस्थ हों, नारियाँ शिक्षिता और सबला हों, लोग संस्कृत पढ़ें और हवन करें, कोई भी हिन्दू मूर्ति–पूजा का नाम न ले, न पुरोहितों, देवताओं और पंडों के फेर में पड़े, ये उपदेश उन सभी प्रान्तों में कोई पचास साल तक गूँजते रहे, जहाँ आर्य–समाज का थोड़ा–बहुत भी प्रचार था।
- दिनकर
(अपने विचार रख सकते हैं।)
किसी भी पुरुष को अप्रसन्न स्त्री, बीमार स्त्री, गर्भवती, धार्मिक व्रत और व्रत करने वाली, मासिक धर्म वाली तथा प्रेम-क्रीड़ा में रुचि न रखने वाली स्त्री के पास वासनापूर्वक नहीं जाना चाहिए।
एक प्यार करने वाले पति को अपनी युवा पत्नी को दुलारने और प्रसन्न करने के बाद, बहुत अनुनय-विनय करने के बाद, और उसकी आवश्यकताओं को सहानुभूति और सहजता से देखने के बाद शारीरिक रूप से उससे संपर्क करना चाहिए। कन्या और पुष्प से सुख पाने की इच्छा रखने वाले पुरुष को ऐसा ही करना चाहिए।
(अप्रीतां रोगिणीं नारीमन्तर्वत्नीं धृतव्रताम्। रजस्वलामकामां च न कामेत बलात् पुमान् ॥
प्रीणन लालन पोषं रज्जनं मार्दवं दयाम्। कृत्वा वधूमुपगमेद् युवतीं प्रेमवान् पतिः ॥ स्कन्दपुराण, ब्राह्मखण्ड ३।१।३९,४०)
महात्माओंने रतिको ही श्रृंगारका कारण बताया है, बलप्रयोग किये जानेपर तो रसकी हानि ही होती है
हे नृपश्रेष्ठ! जब [स्त्री-पुरुष] दोनोंमें एक
समान प्रेम रहता है, तभी उन दोनोंको अधिक सुख
प्राप्त होता है |
(रतिस्तु कारणं प्रोक्तं शृङ्गारस्य महात्मभिः । रसहानिर् बलात्कारे कृते सति तु जायते ॥
उभयोः सदृशं प्रेम यदि पार्थिवसत्तम। तदा वै सुखसम्पत्तिरुभयोरुपजायते ॥ - देवीभागवत ६।८।८।९)
दोनों पति-पत्नी में आपसी ताल मेल होना चाहिये, जोर जबरदस्ती के साथ गमन करना पशु के समान है |
(एतत् कामफलं लोके यद् द्वयोरेकचित्तता। अन्यचेतःकृतः कामः शवयोरिव सङ्गमः ॥ - नारदीयपुराण २।२३।२६ ॥)
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(ब्राह्मण के लिए प्राकृत भाषा का निषेध)
दिव्यां भाषां परित्यज्य प्राकृतां प्रवदेद्यदि।
निपतेत् प्राकृतो मूढ: महापंके यथा जड:।।
नितरां दिव्यभाषां हि प्राकृतोऽपिशनैश्शनै:।
यत्नं कृत्वा महान्तं तं तामभ्यस्य दिने दिने।।
कृतकृत्यो भवेन्नो चेत्तया प्राकृत भाषया।
पदे पदे प्राकृतस्स्यात्तदा जन्मनि जन्मनि।।
एवं सत्यपि यो मोहाद् दैवाद्विद्वान् भवन्नपि।
भाषा प्राकृतास्वेव निष्ठश्चेत् प्राकृतो भवेत्।।
(#मार्कण्डेयस्मृति)
यदि (द्विज) दिव्य (संस्कृत) भाषा को छोड़कर प्राकृत(गँवारु) भाषा को बोलता है तो वह प्राकृत मूढ कीचड़ में जड की तरह गिर जाता है। प्राकृत(द्विज) भी संस्कृत भाषा का महान यत्नपूर्वक नित्य धीरे धीरे अभ्यास करके कृतकृत्य हो जाता है।यदि ऐसा नहीं करता है तब उसी प्राकृत भाषा के कारण पद पद पर जन्म जन्म में प्राकृत होता है।ऐसा होने पर भी जो विद्वान् होकर दैववशात् मोह के कारण प्राकृत भाषाओं में ही निष्ठा रखता है तो वह प्राकृत(गँवार) मनुष्य जैसा ही हो जाता है।
सार यह है कि ब्राह्मण को अनावश्यक प्राकृत भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यज्ञ आदि में तो भूलकर भी नहीं इस विषय में श्रुति भी प्रमाण है। सामान्य बोलचाल में भी संस्कृत शब्दों का अधिकांश प्रयोग करे अन्यथा ब्राह्मणत्व का सुरक्षित रहना भी कठिन हो जायेगा।
साभार :- नीरज तिवारी कि वॉल से
( हिन्दी भाषा भी प्राकृत भाषा का ही अपभृंश है )
Narada Purana III.87.32-36 “On the fourteenth day of the
dark fortnight, during the pitch-dark midnight, the devotee
shall take bath and wear red garments, garlands and
unguents. He must bring a woman of youthful charms to represent the deity Chinnamasta and worship her. She must
be beautiful and capable of having intercourse with five
men, be of smiling look and have her hair dishevelled. She
should be made satisfied by offering her ornaments. She
must be made naked and worshipped and then he must
repeat the mantra ten thousand times. After giving her
offering and spending the night she should be sent away
fully contended with gifts of wealth. He shall then deef the
brahmins with different kinds of food. In this manner, he
shall attain good fortune, sons, grandsons, wealth, fame,
good wife, longevity, happiness, virtue and desired things.”
Tr. Board of Scholars, Edited by J.L. शास्त्री
(इस विधि का कोई तात्विकविवेचन करे)
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