Welcome to @UtkarshClasses Telegram Channel.
✍️ Fastest growing Online Education App 🏆
🔰Explore Other Channels: 👇
http://link.utkarsh.com/UtkarshClassesTelegram
🔰 Download The App
http://bit.ly/UtkarshApp
🔰 YouTube🔔
http://bit.ly/UtkarshClasses
Last updated 1 Tag, 18 Stunden her
https://telegram.me/SKResult
☝️
SK Result
इस लिंक से अपने दोस्तों को भी आप जोड़ सकते हो सभी के पास शेयर कर दो इस लिंक को ताकि उनको भी सही जानकारी मिल सके सही समय पर
Last updated 2 Wochen, 1 Tag her
प्यारे बच्चो, अब तैयारी करे सभी गवर्नमेंट Exams जैसे SSC CGL,CPO,CHSL,MTS,GD,Delhi पुलिस,यूपी पुलिस,RRB NTPC,Group-D,Teaching Exams- KVS,CTET,DSSSB & बैंकिंग Exams की Careerwill App के साथ बहुत ही कम फ़ीस और इंडिया के सबसे बेहतरीन टीचर्स की टीम के साथ |
Last updated 2 Tage, 13 Stunden her
देवयान पथ के संदर्भ में श्री आदि शंकराचार्य जी ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि 'जो सगुण ब्रह्म की उपासना करते हैं वे ही सगुण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं और जो निर्गुण ब्रह्म की उपासना कर ब्रह्मविद्या प्राप्त करते हैं वे लोग देवयान पथ से नहीं जाते'।
अग्नि के सहयोग से जब स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, उस समय सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं हुआ करता ।
मृत्यु के बाद शरीर का जो भाग गर्म महसूस होता है, वास्तव में उसी स्थान से सूक्ष्म शरीर देह त्याग करता है । इसलिए वह स्थान थोड़ा गर्म महसूस होता है ।
गीता के अनुसार जो लोग मृत्यु के अनंतर देवयान पथ से गति करते हैं उनको 'अग्नि' और 'ज्योति' नाम के देवता अपने अपने अधिकृत स्थानों के द्वारा ले जाते हैं । उसके बाद 'अह:' अथवा दिवस के अभिमानी देवता ले जाते हैं । उसके बाद शुक्ल-पक्ष व उत्तरायण के देवता ले जाते हैं ।
थोड़ा स्पष्ट शब्दों में कहे तो देवयान पथ में सबसे पहले अग्नि-देवता का देश आता है फिर दिवस-देवता, शुक्ल-पक्ष, उत्तरायण, वत्सर और फिर आदित्य देवता का देश आता है । देवयान मार्ग इन्हीं देवताओं के अधिकृत मार्ग से ही होकर गुजरता है ।
उसके बाद चन्द्र, विद्युत, वरुण, इन्द्र, प्रजापति तथा ब्रह्मा, क्रमशः आदि के देश पड़ते हैं । जो ईश्वर की पूजा-पाठ करते हैं, भक्ति करते हैं वो इस मार्ग से जाते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता तथा वो अपने अभीष्ट के अविनाशी धाम चले जाते हैं ।
पितृयान मार्ग से भी चन्द्रलोक जाना पड़ता है, लेकिन वो मार्ग थोड़ा अलग होता है । उस पथ पर धूम, रात्रि, कृष्ण-पक्ष, दक्षिणायन आदि के अधिकृत देश पड़ते हैं। अर्थात ये सब देवता उस जीव को अपने देश के अधिकृत स्थान के मध्य से ले जाते हैं।
चन्द्रलोक कभी अधिक गर्म तो कभी अतरिक्त शीतल हो जाता है । वहां अपने स्थूल शरीर के साथ कोई नहीं रह सकता, लेकिन अपने सूक्ष्म शरीर (जो मृत्यु के बाद मिलता है) कि साथ चन्द्रलोक में रह सकता है ।
जो ईश्वर पूजा नहीं करते, परोपकार नही करते, हर समय केवल इन्द्रिय सुख-भोग में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वे लोग मृत्यु के बाद न तो देवयान पथ से और न ही पितृयान पथ से जाते है बल्कि वे पशु योनि
(जैसी उनकी आसक्ति या वासना हो) में बार बार यही जन्म लेकर यही मरते रहते हैं ।
जो लोग अत्यधिक पाप करते है, निरीह और असहायों को सताने में जिनको आनंद आता है, ऐसे नराधमों की गति (मृत्य के बाद) निम्न लोकों में यानी कि नरक में होती है । यहां ये जिस स्तर का कष्ट दूसरों को दिए होते हैं उसका दस गुणा कष्ट पाते हैं । विभिन्न प्रकार के नरकों का वर्णन भारतीय ग्रंथों में दिया गया है ।
अतः नारायण का स्मरण सदैव करें।समय बीतता जा रहा है।जीवन क्षणभंगुर है।
जानिए आपके प्राण कहाँ से निकलेंगे...
प्रत्येक व्यक्ति अलग इंद्रिय से मरता है।किसी की मौत आंख से होती है, तो आंख खुली रह जाती है—हंस आंख से उड़ा। किसी की मृत्यु कान से होती है। किसी की मृत्यु मुंह से होती है, तो मुंह खुला रह जाता है।
अधिक लोगों की मृत्यु जननेंद्रिय से होती है, क्योंकि अधिक लोग जीवन में जननेंद्रिय के आसपास ही भटकते रहते हैं, उसके ऊपर नहीं जा पाते।
आपकी जिंदगी जिस इंद्रिय के पास जीयी गई है, उसी इंद्रिय से मौत होगी। औपचारिक रूप से हम मृतक को जब मरघट ले जाते हैं तो उसकी कपाल—क्रिया करते हैं, उसका सिर तोड़ते हैं। वह सिर्फ प्रतीक है। पर समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु उस तरह होती है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु सहस्रार से होती है।
जननेंद्रिय सबसे नीचा द्वार है। जैसे कोई अपने घर की नाली में से प्रवेश करके बाहर निकले। सहस्रार, जो तुम्हारे मस्तिष्क में है द्वार, वह श्रेष्ठतम द्वार है।
जननेंद्रिय पृथ्वी से जोड़ती है, सहस्रार आकाश से। जननेंद्रिय देह से जोड़ती है, सहस्रार आत्मा से। जो लोग समाधिस्थ हो गए हैं, जिन्होंने ध्यान को अनुभव किया है, जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, उनकी मृत्यु सहस्रार से होती है।
उस प्रतीक में हम अभी भी कपाल—क्रिया करते हैं। मरघट ले जाते हैं, बाप मर जाता है, तो बेटा लकड़ी मारकर सिर तोड़ देता है। मरे—मराए का सिर तोड़ रहे हो!
प्राण तो निकल ही चुके, अब काहे के लिए दरवाजा खोल रहे हो? अब निकलने को वहां कोई है ही नहीं। मगर प्रतीक, औपचारिक, आशा कर रहा है बेटा कि बाप सहस्रार से मरे; मगर बाप तो मर ही चुका है।
यह दरवाजा मरने के बाद नहीं खोला जाता, यह दरवाजा जिंदगी में खोलना पड़ता है। इसी दरवाजे की तलाश में सारे योग, तंत्र की विद्याओं का जन्म हुआ। इसी दरवाजे को खोलने की कुंजियां हैं योग में, तंत्र में।
इसी दरवाजे को जिसने खोल लिया, वह परमात्मा को जानकर मरता है। उसकी मृत्यु समाधि हो जाती है।
प्रत्येक व्यक्ति उस इंद्रिय से मरता है, जिस इंद्रिय के पास जीया। जो लोग रूप के दीवाने हैं, वे आंख से मरेंगे; इसलिए चित्रकार, मूर्तिकार आंख से मरते हैं। उनकी आंख खुली रह जाती है। जिंदगी—भर उन्होंने रूप और रंग में ही अपने को तलाशा, अपनी खोज की। संगीतज्ञ कान से मरते हैं। उनका जीवन कान के पास ही था।
उनकी सारी संवेदनशीलता वहीं संगृहीत हो गई थी। मृत्यु देखकर कहा जा सकता है—आदमी का पूरा जीवन कैसा बीता। अगर तुम्हें मृत्यु को पढ़ने का ज्ञान हो, तो मृत्यु पूरी जिंदगी के बाबत खबर दे जाती है कि आदमी कैसे जीया; क्योंकि मृत्यु सूचक है, सारी जिंदगी का सार—निचोड़ है—आदमी कहां जीया।
~~~~~~~
मृत्यु के समय जीव के साथ क्या घटित हो रहा होता है उसका वहां अन्य लोगों को अंदाज़ नही हो पाता । लेकिन घटनाएं तेज़ी से घटती हैं । मृत्यु के समय व्यक्ति की सबसे पहले वाक उसके मन में विलीन हो जाती है ।उसकी बोलने की शक्ति समाप्त हो जाती है।
उस समय वह मन ही मन विचार कर सकता है लेकिन कुछ बोल नहीं सकता । उसके बाद दृष्टिऔर फिरश्रवण इन्द्रिय मन में विलीन हो जाती हैं । उस समय वह न देख पाता है, न बोल पाता है और न ही सुन पाता है ।
उसके बाद मन इन इंद्रियों के साथ प्राण में विलीन हो जाता है उस समय सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है, केवल श्वास-प्रश्वास चलती रहती है ।
इसके बाद सबके साथ प्राण सूक्ष्म शरीर मे प्रवेश करता है । फिर जीव सूक्ष्म रूप से पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश (पञ्च तन्मात्राओं) का आश्रय लेकर हृदय देश से निकलने वाली 101 नाड़ियों में से किसी एक में प्रवेश करता है ।
हृदय देश से जो 101 नाड़ियां निकली हुई है, मृत्यु के समय जीव इन्हीं में से किसी एक नाड़ी में प्रवेश कर देह-त्याग करता है । मोक्ष प्राप्त करने वाला जीव जिस नाड़ी में प्रवेश करता है, वह नाड़ी हृदय से मस्तिष्क तक फैली हुई है । जो मृत्यु के समय आवागमन से मुक्त नहीं हो रहे होते वे जीव किसी दूसरी नाड़ी में प्रवेश करते हैं ।
जीव जब तक नाड़ी में प्रवेश नही करता तब तक ज्ञानी और मूर्ख दोनों की एक गति एक ही तरह की होती है । नाड़ी में प्रवेश करने के बाद जीवन की अलग अलग गतियां होती हैं।
श्री आदि शंकराचार्य जी का कथन है कि 'जो लोग ब्रह्मविद्या की प्राप्ति करते हैं वो मृत्यु के बाद देह ग्रहण नही करते, बल्कि मृत्यु के बाद उनको मोक्ष प्राप्त हो जाता है' । श्री रामानुज स्वामी का कहना है 'ब्रह्मविद्या प्राप्त होने के बाद भी जीव जीव देवयान पथ पर गमन करने के बाद ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, उसके बाद मुक्त हो जाता है' ।
(क्रमशः)@Sanatan
इस काल खंड में देश की पवित्र नदियों में स्नान का खास महत्व होता है। भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए आश्विन की पूर्णिमा से लेकर कार्तिक की पूर्णिमा तक प्रतिदिन गंगा जी में स्नान करना चाहिए. यदि गंगा जी नहीं है तब किसी भी नदी, तालाब अथवा पोखर आदि में कार्तिक स्नान करना चाहिए. यदि कुछ भी नहीं है तब नियमित रुप से घर पर ही शुद्ध बाल्टी अथवा पात्र से स्नान करना है उसमें गंगा जी सहित सभी पवित्र नदियों की कल्पना करके स्नान करना चाहिए।
देवी पक्ष अर्थात भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की महारात्रि आने तक प्रतिदिन स्नान करना चाहिए। श्रीगणेश जी को प्रसन्न करने के लिए आश्विन कृष्ण चतुर्थी से लेकर कार्तिक कृष्ण चतुर्थी तक नियमपूर्वक स्नान करना चाहिए। भगवान जनार्दन को प्रसन्न करने के लिए आश्विन शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक प्रतिदिन स्नान करना चाहिए।
जो मनुष्य जाने-अनजाने कार्तिक मास में नियम से स्नान करते हैं, उन्हें कभी यम-यातना को नहीं देखना पड़ता, कार्तिक मास में तुलसी के पौधे के नीचे राधा-कृष्ण की मूर्त्ति रखकर पूरे भाव के साथ पूजा करनी चाहिए. यदि आंवले का पेड़ है तब उसके नीचे भी राधा-कृष्ण की मूर्त्ति रखकर पूरे श्रद्धा भाव से पूजन करना चाहिए।
विधिपूर्वक स्नान करने के लिए जब दो घड़ी रात बाकी बच जाए तब तुलसी की मिट्टी, वस्त्र और कलश लेकर जलाशय या गंगा तट अथवा पवित्र नदी के किनारे जाकर पैर धोने चाहिए तथा गंगा जी के साथ अन्य पवित्र नदियों का ध्यान करते हुए विष्णु, शिव आदि देवताओं का ध्यान करना चाहिए. उसके बाद नाभि तक जल में खड़े होकर निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
कार्तिकेsहं करिष्यामि प्रात: स्नानं जनार्दनं ।
प्रीत्यर्थं तव देवेश दामोदर मया सह ।।
अर्थात हे जनार्दन देवेश्वर ! लक्ष्मी सहित आपकी प्रसन्नता के लिए मैं कार्तिक प्रात: स्नान करुँगा।
उसके बाद निम्न मंत्र का उच्चारण करें -
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ।
नम: कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने ।।।
नमस्तेsस्तु हृषीकेश गृहाणार्घ्यं नमोsस्तुते ।।
अर्थात आप मेरे द्वारा दिये गये इस अर्घ्य को श्रीराधाजी सहित स्वीकार करें,
हे हरे! आप कमलनाभ को नमस्कार है, जल में शयन करने वाले आप नारायण को नमस्कार है. इस अर्घ्य को स्वीकार कीजिए, आपको बारम्बार नमस्कार है।
व्यक्ति किसी भी जलाशय में स्नान करे, उसे स्नान करते समय गंगा जी का ही ध्यान करना चाहिए. सबसे पहले मृत्तिका (मिट्टी) आदि से स्नान कर ऋचाओं द्वारा अपने मस्तक पर अभिषेक करें. अघमर्षण और स्नानांग तर्पण करें तथा पुरुष सूक्त द्वारा अपने सिर पर जल छिड़्के. इसके बाद जल से बाहर निकलकर दुबारा अपने मस्तक पर आचमन करना चाहिए और कपड़े बदलने चाहिए। कपड़े बदलने के बाद तिलक आदि लगाना चाहिए। जब कुछ रात बाकी रह जाए तब स्नान किया जाना चाहिए क्योंकि यही स्नान उत्तम कहलाता है तथा भगवान विष्णु को पूर्ण रूप से संतुष्ट करता है।
प्राचीनकाल में कार्तिक मास में पुष्कर का स्पर्श पाकर नन्दा परम धाम को प्राप्त हुई थी, राजा प्रभंजन भी कार्तिक मास में पुष्कर में स्नान करने से व्याघ्र योनि से मुक्त हुए थे,अत: कार्तिक मास में जो मनुष्य प्रात:काल उठकर तीर्थ में स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर श्री हरि को प्राप्त होता है। सूर्योदय काल में किया गया स्नान मध्यम स्नान कहलाता है, कृत्तिका अस्त होने से पहले तक का स्नान उत्तम माना जाता है, बहुत देर से किया गया स्नान कार्तिक स्नान नहीं माना जाता है।
इस प्रकार संपूर्ण कार्तिक स्नान कर्म विधि को सर्व मोक्ष एवं कल्याण रूप में निरूपित किया जाना चाहिए।
🚩नमो नारायण 🚩
सप्तमाध्याय को जटा कहा जाता है । उग्रश्चभीमश्च मन्त्र मे मरुत् देवता का वर्णन है। इसके देवता वायुदेव हैं।
अष्टमाध्याय को चमकाध्याय कहा जाता है । इसमे 29 मन्त्र है। प्रत्येक मन्त्र मे "च "कार एवं "मे" का बाहुल्य होने से कदाचित चमकाध्याय अभिधान रखा गया है । इसके ऋषि "देव"स्वयं है तथा देवता अग्नि है। प्रत्येक मन्त्र के अन्त मे यज्ञेन कल्पन्ताम् पद आता है।
रुद्री के उपसंहार मे "ऋचं वाचं प्रपद्ये " इत्यादि 24 मन्त्र शान्तयाध्याय के रुप मे एवं "स्वस्ति न इन्द्रो " इत्यादि 12 मन्त्र स्वस्ति प्रार्थना के रुप मे प्रसिद्ध है।
सर्वेभ्यः अद्य श्री श्रावण पर्वणः हार्दिक्यः शुभकामनाः।
ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव ???
6
? रुद्र पाठ अभिषेक के भेद —
शास्त्रों और पुराणों में शिव पूजन के कई प्रकार बताए गए हैं, लेकिन जब हम शिवलिंग स्वरूप महादेव का अभिषेक करते हैं तो उस जैसा पुण्य अश्वमेघ जैसे यज्ञों से भी प्राप्त नहीं होता। स्वयं सृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है कि, 'जब हम अभिषेक करते हैं तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करने लगते हैं। संसार में ऐसी कोई वस्तु, कोई भी वैभव, कोई भी सुख, ऐसी कोई भी वास्तु या पदार्थ नहीं है जो हमें अभिषेक से प्राप्त न हो सके। मुख्य पांच प्रकार निम्न है -
(1) रूपक या षडंग पाठ—रुद्र के छह अंग कहे गए हैं। इन छह अंग का यथा विधि पाठ षडंग पाठ कहा गया है।
शिव कल्प सूक्त— प्रथम हृदय रूपी अंग है
पुरुष सूक्त — द्वितीय सिर रूपी अंग है ।
उत्तरनारायण सूक्त — शिखा है।
अप्रतिरथ सूक्त — कवचरूप चतुर्थ अंग है ।
मैत्सुक्त — नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है ।
शतरुद्रिय — अस्तरूप षष्ठ अंग कहा गया है।
इस प्रकार सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी के दस अध्यायों का षडंग रूपक पाठ कहलाता है षडंग पाठ में विशेष बात है कि इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवें अध्याय की आवृति नहीं होती है कर्मकाण्डी भाषा में इसे ही नमक-चमक से अभिषेक करना कहा जाता है।
(2) रुद्री या एकादशिनी - रुद्राध्याय की ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते हैं। रुद्रों की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है।
(3) लघुरुद्र- एकादशिनी रुद्री की ग्यारह आवृत्तियों के पाठ को लघुरुद्र पाठ कहा गया है। यह लघु रुद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रुद्र अनुष्ठान संपन्न होते हैं।
(4) महारुद्र- लघु रुद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादशिनी रुद्री की 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है । यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है।
(5) अतिरुद्र - महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री की 1331 आवृति पाठ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है ये
(1)अनुष्ठात्मक
(2) अभिषेकात्मक
(3) हवनात्मक ,
तीनो प्रकार से किये जा सकते हैं। शास्त्रों में इन अनुष्ठानों का अत्यधिक फल है व तीनोंं का फल समान है।
रुद्राष्टाध्यायी के प्रत्येक अध्याय मे - प्रथमाध्याय का प्रथम मन्त्र "गणानां त्वा गणपति गुम हवामहे " बहुत ही प्रसिद्ध है । यह मन्त्र ब्रह्मणस्पति के लिए भी प्रयुक्त होता है।
द्वितीय एवं तृतीय मन्त्र मे गायत्री आदि वैदिक छन्दो तथा छन्दों में प्रयुक्त चरणों का उल्लेख है। पाँचवें मन्त्र "यज्जाग्रतो से सुषारथि" पर्यन्त का मन्त्रसमूह शिवसंकल्पसूक्त कहलाता है। इन मन्त्रो का देवता "मन" है। इन मन्त्रों में मन की विशेषताएँ वर्णित हैँ। परम्परानुसार यह अध्याय गणेश जी का है।
द्वितीयाध्याय में सहस्रशीर्षा पुरुषः से यज्ञेन यज्ञमय तक 16 मन्त्र पुरुषसूक्त से हैं, इनके नारायण ऋषि एवं विराट पुरुष देवता हैं। 17 वें मन्त्र अद्भ्यः सम्भृतः से श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च ये छह मन्त्र उत्तरनारायणसूक्त रूप में प्रसिद्ध है। द्वितीयाध्याय भगवान विष्णु का माना गया है।
तृतीयाध्याय के देवता देवराज इन्द्र हैं तथा अप्रतिरथ सूक्त के रूप मे प्रसिद्ध है। कुछ विद्वान आशुः शिशानः से अमीषाज्चित्तम् पर्यन्त द्वादश मन्त्रों को स्वीकारते हैं तो कुछ विद्वान अवसृष्टा से मर्माणि ते पर्यन्त 5 मन्त्रों का भी समावेश करते हैं। इन मन्त्रों के ऋषि अप्रतिरथ है। इन मन्त्रों द्वारा इन्द्र की उपासना द्वारा शत्रुओं, स्पर्शाधकों का नाश होता है।
प्रथम मन्त्र "ऊँ आशुः शिशानो .... त्वरा से गति करके शत्रुओं का नाश करने वाला, भयंकर वृषभ की तरह, सामना करने वाले प्राणियोँ को क्षुब्ध करके नाश करने वाला। मेघ की तरह गर्जना करने वाला। शत्रुओं का आवाहन करने वाला, अति सावधान, अद्वितीय वीर, एकाकी पराक्रमी, देवराज इन्द्र शतशः सेनाओ पर विजय प्राप्त करता है।
चतुर्थाध्याय में सप्तदश मन्त्र हैं, जो मैत्रसूक्त के रूप मे प्रसिद्ध है। इन मन्त्रों में भगवान सूर्य की स्तुति है " ऊँ आकृष्णेन रजसा " में भुवनभास्कर का मनोरम वर्णन है। यह अध्याय सूर्यनारायण का है ।
पंचमाध्याय मे 66 मन्त्र हैं। यह अध्याय प्रधान है, इसे शतरुद्रिय कहते हैं।
"शतसंख्यात रुद्रदेवता अस्येति शतरुद्रियम्। इन मन्त्रों में रुद्र के शतशः रूप वर्णित है। कैवल्योपनिषद मे कहा गया है कि शतरुद्रिय का अध्ययन से मनुष्य अनेक पातकों से मुक्त होकर पवित्र होता है। इसके देवता महारुद्र शिव है।
षष्ठाध्याय को महच्छिर के रूप मेँ माना जाता है। प्रथम मन्त्र में सोम देवता का वर्णन है। प्रसिद्ध महामृत्युञ्जय मन्त्र "ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे" इसी अध्याय में है। इसके देवता चन्द्रदेव हैं।
5
शिववास विचार -किसी कामना से किए जाने वाले रुद्राभिषेक में शिव-वास का विचार करने पर अनुष्ठान अवश्य सफल होता है। ज्योर्तिलिंग क्षेत्र एवं तीर्थस्थान में तथा शिवरात्रि-प्रदोष, श्रावण के सोमवार आदि पर्वो में शिव-वास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है।
शिववास चक्रम् का फल निम्न प्रकार ज्ञात किया जाता है ।
• गौरी सानिध्य शिववास - 1,8,30 (कृष्णपक्ष तिथि), 2,9 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल सुख सम्पदा
• सभा शिववास - 2,9 (कृष्णपक्ष तिथि), 3,10 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल ताप
• क्रीड़ा शिववास - 3,10 (कृष्णपक्ष तिथि), 4,11 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल कष्ट
• कैलाश शिववास - 4,11 (कृष्णपक्ष तिथि), 5,12 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल सुख
• वृषभ शिववास - 5,12 (कृष्णपक्ष तिथि), 6,13 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल अभिष्ठ सिद्धि
• भोजन शिववास - 6,13 (कृष्णपक्ष तिथि), 7,14 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल पीड़ा
• श्मशान शिववास - 7,14 (कृष्णपक्ष तिथि), 1,8,15 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल मरण
4
योगिनी तन्त्र में मांस का अर्थ नमक तथा अदरक बताया है-
मांसं मत्स्यं नु सर्वेषा लवणाद्रकमीरितम् ।
अर्थात् जहाँ पर भी शास्त्रों में मांस खाने या देवताओं को चढ़ाने का विधान आया है, वहाँ पर नमक और अदरक को मिला कर चढ़ाना ही मांस का भोग लगाना है। 'कुलार्णव तन्त्र' में भी मांस के स्थान पर नमक और अदरक का ही विधान बताया है-
मा शब्दाद् रसना ज्ञेया संदशान् रसनाप्रियान्। एतद यो भक्षये देवि सएंवा धक ।।
अर्थात् मांस का तात्पर्य रसना प्रिय इन्द्रियाँ हैं। इसका तात्पर्य उन पर नियंत्रण प्राप्त करना है। अर्थात् रसना प्रिय इन्द्रियों का परित्याग कर जो संयमित जीवन व्यतीत करता है, वही वास्तव में मांस साधक योगी है। पापी रूपी पशु को ज्ञान रूपी खड्ग से मार कर जो योगी मन को चित्त में लीन कर लेता है, वही सही अर्थों में मांसाहारी है।
कुलार्णव तन्त्र' में मद्य की सही व्याख्या की गई है। वहाँ पर नारियल के पानी को मद्य कहा गया है।
ब्रह्मस्थानसरोजपात्रलसिता ब्रह्माण्डतृप्तिप्रदा या शुभ्रांशुकलासुधाविगलिता सापान योग्यासुरा ।।
सा हाला पिबतामनर्थफलदा श्रीदिव्यभावाश्रिताः।
वापीत्वा मुनयः परार्थकुशला निर्वाण मुक्तिगताः ।।
अर्थात् सिर के मध्य में जो सहस्रार पद्मदल कमल हैं, उसमें अमृत रूपी चन्द्रमा की कला के समान मधुर अमृतमय शराब या हाला भरी हुई है। इसको पीने से अर्थात् सहस्रार को जाग्रत करने से साधक की सारी इच्छाएं फलदायक हो जाती हैं, वह दिव्य हो जाता है और मृत्युभय से मुक्त होकर पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
तन्त्र शास्त्र में मत्स्य का विधान कई स्थानों पर आया है, भ्रष्ट तांत्रिकों ने इसका तात्पर्य मछली भक्षण कहा है। जबकि सम्पूर्ण तन्त्र साहित्य में ऐसा विधान नहीं है। योगिनी तन्त्र' में कहा है कि मत्स्य का तात्पर्य मूली और बैंगन को प्रसाद के रूप में चढ़ाना या भक्षण करना ही मत्स्य भक्षण है। इसी योगिनी तन्त्र में आगे कहा है नमक का सेवन करना ही मत्स्य सेवन है।
अहंकारो दम्भो मदपिशुनतामत्सरद्विषः ।
षडेतान् मीनान वै विषयहरजालेनविवृतान् ।।
पचन् सिव्दिवानो नियमितकृतिर्थीवरकृतिः ।
सदा खादेत् सर्वांन्न च जलचराणां कुपिशितम् ।।
अर्थात् अहंकार, दम्भ, मद, पिशुनता, मत्सर, द्वेष-ये छः मछलियाँ हैं। साधक बुद्धिमत्तापूर्वक वैराग्य के जाल में इनको पकड़े और सद्विद्या रूपी अग्नि पर पका कर खावे तो निश्चित रूप से मुक्ति होती है।
कलार्णव तन्त्र में कहा गया है। पंच मुद्राओं का ज्ञान गुरु मुख से ही समझना चाहिए। मुद्रा का तात्पर्य है कच्चा चावल या धान। उपासना और साधना में अपने आन्तरिक भावों को व्यक्त करने के लिए बाह्य शरीर से जो भाव भंगिमाएं दिखाते हैं, उन्हीं ही 'मुद्रा' कहते हैं, वे मुद्राएं आन्तरिक भावों की अभिव्यक्ति है, इसके माध्यम से ही साधक अपने इष्ट देवता से बात-चीत करता है।
मैथुन का तात्पर्य देवताओं को सुन्दर पुष्पों का समर्पण है। सामान्य भाषा में स्त्री और पुरुष के मिलन को मैथुन कहा गया है, पर तन्त्र की परिभाषा में इसका तत्पर्य हाड़-मांस वाले स्त्री-पुरुष नहीं हैं। यहां स्त्री से तात्पर्य कुण्डलिनी शक्ति है, जो मूलाधार में सोयी हुई रहती है और जो शक्ति स्वरूपा है। सहस्रार में शिव का स्थान है, इस शिव और शक्ति का मिलन ही वास्तविक मिलन अथवा मैथुन कहा गया है।
तत्त्वानुभूतिकृपा दो प्रकार की होती है। प्रथम है साधारण कृपा, द्वितीय को विशेष कृपा कहते हैं। साधारण कृपा से सब कर्म नहीं कटते। प्रारब्ध को भोग कर काटना होता है। संचित कर्म कट जाता है, कर्म समाप्त होने से इसकी उपलब्धि होती है। विशेष कृपा में कर्म कटता है। संचित कर्म नहीं रहता और नया कर्म होता ही नहीं। पिछले कर्म भी भोगने नहीं पड़ते। जब यह कृपा तीव्रतर होती है, तब प्रायः प्रारब्ध कट जाता है। सूर्य का प्रकाश देना कृपा है, किन्तु अंधा व्यक्ति प्रकाश नहीं पाता। इसमें सूर्य का दोष नहीं है, परन्तु उसकी कृपा निष्फल हो जाती है। साधारण कृपा किसी को लक्ष्य करके नहीं होती। अतः यह एक प्रकार का स्वभाव है। साधारण कृपा से ही गुरुत्व का प्रारम्भ होता है। जो आश्रय लेता है, वही कृपा पाता है। सभी ले भी नहीं सकते, क्यों कि उनका कर्म बाधक हो जाता है। योग्यता अथवा receptivity भी सबमें समान नहीं है। साधारण कृपा से किसी की भी योग्यता वर्धित नहीं होती। इसे कर्म से बढ़ाया जा सकता है। योग्यता की वृद्धि से कृपा प्राप्त की जा सकती है। इसके विपरीत विशेष कृपा में योग्यता की अपेक्षा ही नहीं है। वह स्वंय योग्यता उत्पन्न करती है।
?
महाकुंभ में देश के सामने होगी हिंदू आचार संहिता,351 साल बाद काशी विद्वत परिषद ने की तैयार
वाराणसी। 351 साल बाद हिंदू आचार संहिता बनकर तैयार है। चार साल के अध्ययन, मंथन के बाद इसे काशी विद्वत परिषद और देशभर के विद्वानों की टीम ने बनाया है।इस पर प्रयागराज में होने वाले महाकुंभ में शंकराचार्य और महामंडलेश्वर अंतिम मुहर लगाएंगे। इसके बाद फिर धर्माचार्य नई हिंदू आचार संहिता को स्वीकार करने का आग्रह देश की जनता से करेंगे।
2025 में महाकुंभ होगा।देश को एकसूत्र में पिरोने और सनातन धर्म को मजबूत करने के लिए हिंदू आचार संहिता तैयार की गई है। कर्म और कर्तव्य प्रधान हिंदू आचार संहिता के लिए स्मृतियों को आधार बनाया गया है। इसमें श्रीमद्भागवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों का अंश शामिल किया गया है।
नई आचार संहिता तैयार करने की जिम्मेदारी काशी विद्वत परिषद को सौंपी गई थी। इसके लिए 70 विद्वानों की 11 टीम और तीन उप टीम बनाई गई थी। हर टीम में उत्तर और दक्षिण के पांच-पांच विद्वान सदस्यों को रखा गया था। टीम ने 40 बार से अधिक बैठक की है। मनु स्मृति, पराशर स्मृति और देवल स्मृति को भी आधार बनाया गया है।
हिंदू आचार संहिता में षोडश संस्कारों को सरल किया गया है। खासकर मृतक भोज के लिए न्यूनतम 16 की संख्या निर्धारित की गई है। अशौच के विधान का पालन करना होगा।काल के अनुसार स्मृतियों का निर्माण हुआ। सबसे पहले मनु स्मृति, फिर पाराशर और इसके बाद देवल स्मृति का निर्माण हुआ। 351 सालों से स्मृतियों का निर्माण नहीं हो सका था।महाकुंभ में वितरण के लिए पहली बार एक लाख प्रतियां हिंदू आचार संहिता की छापी जाएंगी। इसके बाद देश के हर शहर में 11 हजार प्रतियों का वितरण किया जाएगा।
हिंदू आचार संहिता में हिंदुओं को मंदिरों में बैठने, पूजन-अर्चन के लिए समान नियम बनाए गए हैं। महिलाओं को अशौचावस्था को छोड़कर वेद अध्ययन और यज्ञ करने की अनुमति दी गई है। प्री-वेडिंग जैसी कुरीतियों को हटाने के साथ ही रात्रि के विवाह को समाप्त करके दिन के विवाह को बढ़ावा दिया जाएगा।भारतीय परंपरा के अनुसार जन्मदिन मनाने पर जोर दिया गया है। घर वापसी की प्रकिया को आसान किया गया है। विधवा विवाह की व्यवस्था को भी इसमें शामिल किया गया है।
Welcome to @UtkarshClasses Telegram Channel.
✍️ Fastest growing Online Education App 🏆
🔰Explore Other Channels: 👇
http://link.utkarsh.com/UtkarshClassesTelegram
🔰 Download The App
http://bit.ly/UtkarshApp
🔰 YouTube🔔
http://bit.ly/UtkarshClasses
Last updated 1 Tag, 18 Stunden her
https://telegram.me/SKResult
☝️
SK Result
इस लिंक से अपने दोस्तों को भी आप जोड़ सकते हो सभी के पास शेयर कर दो इस लिंक को ताकि उनको भी सही जानकारी मिल सके सही समय पर
Last updated 2 Wochen, 1 Tag her
प्यारे बच्चो, अब तैयारी करे सभी गवर्नमेंट Exams जैसे SSC CGL,CPO,CHSL,MTS,GD,Delhi पुलिस,यूपी पुलिस,RRB NTPC,Group-D,Teaching Exams- KVS,CTET,DSSSB & बैंकिंग Exams की Careerwill App के साथ बहुत ही कम फ़ीस और इंडिया के सबसे बेहतरीन टीचर्स की टीम के साथ |
Last updated 2 Tage, 13 Stunden her