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By Chandan Kr Sah
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‘गौएँ स्वर्गकी सीढ़ियाँ हैं, गौएँ स्वर्गमें भी पूजी जाती हैं, गौएँ समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली देवियाँ हैं, उनसे बढ़कर और कोई श्रेष्ठ वस्तु नहीं है।'
( महाभारत, अनु० ५१ । ३३)
'जिसके घरमें बछड़ेसहित एक भी गौ नहीं है, उसका मंगल कैसे होगा और उसके पापोंका नाश कैसे होगा ?"
(अत्रिसंहिता २१८ - २१९ )
'गौओंका सदा दान करना चाहिये, सदा उनकी रक्षा करनी चाहिये और सदा उनका पालन-पोषण करना चाहिये ।
(बृहत्पराशरस्मृति ५। २३)
'राजन्! जो प्याससे व्याकुल गायोंके जल पीनेमें विघ्न डालता है, उसे ब्रह्महत्यारा समझना चाहिये।'
(महाभारत, अनु० २४ । ७)
'जो नराधम मनमें भी गायोंको दुःख देनेकी इच्छा कर लेता है, उसे चौदह इन्द्रोंके कालतक नरकमें रहना पड़ता है। '
(पद्मपुराण, पाताल० १९ । ३४ )
'राजन्! जो मनुष्य जान-बूझकर भगवान्की निन्दा करता है और गायोंको दुःख देता है, नरकसे कभी छुटकारा नहीं हो सकता।'
(पद्मपुराण, पाताल० १९ । ३६ )
'गौकी हत्या करनेवाले, उसका मांस खानेवाले तथा गोहत्याका अनुमोदन करनेवाले लोग गौ शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक नरकमें डूबे रहते हैं।
( महाभारत, अनु० ७४ । ४)
'गोभक्त मनुष्य जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब उसे प्राप्त होती है। स्त्रियोंमें भी जो गौओंकी भक्त हैं, वे मनोवाञ्छित कामनाएँ प्राप्त कर लेती हैं। पुत्रार्थी मनुष्य पुत्र पाता है और कन्यार्थी कन्या । धन चाहनेवालेको धन और धर्म चाहनेवालेको धर्म प्राप्त होता है। विद्यार्थी विद्या पाता है और सुखार्थी सुख । भारत! गोभक्तके लिये यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं है।'
(महाभारत, अनु० ८३ । ५०-५२ )
'जो गौओंको प्रतिदिन जल और तृणसहित भोजन प्रदान करता है, उसे अश्वमेधयज्ञके समान पुण्य प्राप्त होता है, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है।'
(बृहत्पराशरस्मृति ५। २६-२७ )
मनुष्यको चाहिये कि तपको क्रोधसे, सम्पत्तिको डाहसे, विद्याको मान-अपमानसे और अपनेको प्रमादसे बचावे। क्रूर स्वभावका परित्याग सबसे बड़ा धर्म है। क्षमा सबसे महान् बल है। आत्मज्ञान सर्वोत्तम ज्ञान है और सत्य ही सबसे बढ़कर हितका साधन है ।
(नारद पुराण, पुर्व ० ६०/४८)
[ श्रीरामजी बोले-]
जो मनुष्य अपने अहितका अनुमान करके शरणमें आये हुएका त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं; उन्हें देखनेमें भी हानि है (पाप लगता है)।
जिसे करोड़ों ब्राह्मणोंकी हत्या लगी हो, शरणमें आनेपर मैं उसे भी नहीं त्यागता । जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं।
जो मनुष्य निर्मल मनका होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल छिद्र नहीं सुहाते।
(रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड ४३/३)
महर्षि शातातप बतलाते हैं कि -
प्रत्येक व्यक्तिको प्रात:काल जगकर यह समझना चाहिये कि 'यह जीवन क्षणिक है, इसमें महान् भय उपस्थित है। पता नहीं कब मरण हो जाय, कब कौन-सी व्याधि आ जाय, कब कौन शोक आ जाय, अर्थात् ये अत्यन्त समीपमें ही आये हुए हैं' ऐसा समझकर धर्मका ही अनुष्ठान करना चाहिये, भजन-पूजन, भगवत्सेवा इत्यादि
उत्तम कामोंमें ही अपना समय लगाना चाहिये, मृत्यु कब आकर घेर लेगी, इसका कुछ पता नहीं।
यह समझना चाहिये कि हम कालके मुँहमें ही पड़े हैं, अतः अच्छे कामको कलके लिये नहीं टालना चाहिये।
'कल करूँगा, आज करूँगा, पूर्वाह्णमें करूँगा, अपराह्नमें करूँगा', इस प्रकारसे टाल-मटोल करके सत्कर्मकी उपेक्षा नहीं
करनी चाहिये। अच्छे कामोंको, सत्कर्मोंको, धर्माचरणको तत्काल ही कर ले और बुरे कामको टालता रहे ।
मृत्यु किसीकी प्रतीक्षा नहीं करती। वह तो अपने नियत समयपर आयेगी ही। चाहे मनुष्यने अपना काम कर लिया हो चाहे वह काम करनेवाला हो, इसका खयाल मृत्यु नहीं करती। अर्थात् मृत्यु नियत है, काल नियत है, थोड़ा-सा समय मिला है, अतः जैसे बन पड़े, जितनी जल्दी बन पड़े, आत्मकल्याणमें लग जाना चाहिये ।
(वृद्धशातातपस्मृति , श्लोक ६५ -६६)
प्रायश्चित्त करनेपर पाप कहाँ चला जाता है ?
'पापी व्यक्तिका पाप प्रायश्चित्त कर लेनेपर कहाँ चला जाता है अथवा किसका आश्रय लेकर रहता है,' इस प्रश्नके उत्तरमें उत्तराङ्गिरसस्मृति में बतलाया गया है कि वह पाप न तो कर्ताको लगता है और न प्रायश्चित्त बतलानेवाली धर्मपरिषद्को, बल्कि वह पाप उसी प्रकार विलीन हो जाता है, जिस प्रकार हवा और सूर्यकी किरणोंसे जल विलीन हो जाता है।
(उत्तराङ्गिरसस्मृति ६/१०)
मनुष्य इस जगत्में हजारों माता-पिताओं तथा सैकड़ों स्त्री-पुत्रोंके संयोग-वियोगका अनुभव कर चुके हैं, करते हैं और करते रहेंगे।
अज्ञानी पुरुषको प्रतिदिन हर्षके हजारों और भयके सैकड़ों अवसर प्राप्त होते हैं, किंतु विद्वान् पुरुषके मनपर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकारकर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता।
धर्मसे मोक्ष तो सिद्ध होता ही है, अर्थ
और काम भी सिद्ध होते हैं तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते। कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचानेके लिये भी धर्मका त्याग न करे।
धर्म नित्य है और सुख-दु:ख अनित्य, इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धनका हेतु अनित्य।
(महाभा०, स्वर्गा० पर्व ५ । ६०-६३)
मनके द्वारा इष्टदेवके प्रति जो भावना होती है, उसे ही भक्ति और श्रद्धा कहते हैं। जो इष्टदेवकी कथा सुनता, उनके भक्तोंकी पूजा करता तथा अग्निकी उपासनामें संलग्न रहता है वह सनातन भक्त है ।
जो इष्टदेवके लिये किये जानेवाले कर्मोंका अनुमोदन करता, उनके भक्तोंमें दोष नहीं देखता, अन्य देवताकी निन्दा नहीं करता, सूर्यके व्रत रखता तथा चलते, फिरते, ठहरते, सोते, सूँघते और आँख खोलते - मीचते समय भगवान् भास्करका स्मरण करता है, वह मनुष्य अधिक भक्त माना गया है । विज्ञ पुरुषको सदा ऐसी ही भक्ति करनी चाहिये ।
भक्ति, समाधि, स्तुति और मनसे जो नियम किया जाता और जो ब्राह्मणको दान दिया जाता है, उसे देवता, मनुष्य और पितर- सभी ग्रहण करते हैं। पत्र, पुष्प, फल और जल-जो कुछ भी भक्तिपूर्वक अर्पण किया जाता है, उसे देवता ग्रहण करते हैं; परंतु वे नास्तिकोंकी दी हुई वस्तु नहीं स्वीकार करते ।
नियम और आचारके साथ भावशुद्धिका भी उपयोग करना चाहिये। हृदयके भावको शुद्ध रखते हुए जो कुछ किया जाता है, वह सब सफल होता है।
(संक्षिप्त ब्रह्मपुराण, अध्याय १७, गीता प्रेस, पृष्ठ ६७)
जिज्ञासुको चाहिये कि गुरुको ही अपना परम प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने। उनकी निष्कपटभावसे सेवा करे और उनके पास रहकर भागवतधर्मकी-भगवान्को प्राप्त करानेवाले भक्ति-भावके साधनोंकी क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे। इन्हीं साधनोंसे सर्वात्मा एवं भक्तको अपने आत्माका दान करनेवाले भगवान् प्रसन्न होते हैं।
पहले शरीर, सन्तान आदिमें मनकी अनासक्ति सीखे। फिर भगवान्के भक्तोंसे प्रेम कैसा करना चाहिये - यह सीखे। इसके पश्चात् प्राणियोंके प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनयकी निष्कपट भावसे शिक्षा ग्रहण करे।
मिट्टी, जल आदिसे बाह्य शरीरकी पवित्रता, छल-कपट आदिके त्यागसे भीतरकी पवित्रता, अपने धर्मका अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें हर्ष-विषादसे रहित होना सीखे।
सर्वत्र अर्थात् समस्त देश, काल और वस्तुओंमें चेतनरूपसे आत्मा और नियन्तारूपसे ईश्वरको देखना, एकान्तसेवन, 'यही मेरा घर है' - ऐसा भाव न रखना, गृहस्थ हो तो पवित्र वस्त्र पहनना और त्यागी हो तो फटे-पुराने पवित्र चिथड़े, जो कुछ प्रारब्धके अनुसार मिल जाय, उसीमें सन्तोष करना सीखे।
भगवान की प्राप्तिका मार्ग बतलानेवाले
शास्त्रोंमें श्रद्धा और दूसरे किसी भी शास्त्रकी निन्दा न करना, प्राणायामके द्वारा मनका, मौनके द्वारा वाणीका और वासनाहीनताके अभ्याससे कर्मका संयम करना, सत्य बोलना, इन्द्रियोंको अपने-अपने गोलकोंमें स्थिर रखना और मनको कहीं बाहर न जाने देना सीखे।
राजन् ! भगवान्की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हींका श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीरसे जितनी भी चेष्टाएँ हों, सब भगवान् के लिये करना सीखे।
यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचारका पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपनेको प्रिय लगता हो-सब-का-सब भगवान के चरणों में निवेदन करना उन्हें सौंप देना सीखे।
जिन संत पुरुषोंने सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णका अपने आत्मा और स्वामीके रूपमें साक्षात्कार कर लिया हो, उनसे प्रेम और स्थावर, जंगम दोनों प्रकारके प्राणियोंकी सेवा; विशेष करके मनुष्योंकी, मनुष्यों में भी परोपकारी सज्जनोंकी और उनमें भी भगवत्प्रेमी संतोंकी करना सीखे।
(श्रीमद्भागवत ११/३/२२ से २९ तक)
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