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By Chandan Kr Sah
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पुत्र, पौत्र, पतोहू तथा अन्य भरण-पोषणके योग्य कुटुम्बीजनोंसे भरा होनेपर भी गृहस्थका घर उसकी पत्नीके बिना सूना ही रहता है।
वास्तवमें घरको घर नहीं कहते, घरवालीका ही नाम घर है। घरवालीके बिना जो घर होता है, उसे जंगलके समान ही माना गया है।
वृक्षेके नीचे भी जिसकी पत्नी साथ हो, उसके लिये वही घर है और बहुत बड़ी अट्टालिका भी यदि स्त्रीसे रहित है तो वह निश्चय ही दुर्गम गहन वनके समान है ।
पुरुषके धर्म, अर्थ और कामके अवसरोंपर उसकी पत्नी ही उसकी मुख्य सहायिका होती है। परदेश जानेपर भी वही उसके लिये विश्वसनीय मित्रका काम करती है।
पुरुषकी प्रधान सम्पत्ति उसकी पत्नी ही कही जाती है। इस लोकमें जो असहाय है, उसे भी लोक-यात्रामें सहायता देनेवाली उसकी पत्नी ही है।
जो पुरुष रोगसे पीड़ित हो और बहुत दिनोंसे विपत्तिमें फँसा हो, उस पीड़ित मनुष्यके लिये भी स्त्रीके समान दूसरी कोई ओषधि नहीं है।
संसारमें स्त्रीके समान कोई बन्धु नहीं है, स्त्रीके समान कोई आश्रय नहीं है और स्त्रीके समान धर्मसंग्रहमें सहायक भी दूसरा कोई नहीं है।
जिसके घरमें साध्वी और प्रिय वचन बोलने-वाली भार्या नहीं है, उसे तो वनमें चला जाना चाहिये; क्योंकि उसके लिये जैसा घर है, वैसा ही वन।
(महाभारत, शान्तिपर्व , १४४ से)
नारीके लिये पतिकी सेवासे बढ़कर न कोई धर्म है, न जप है, न दान है, न तप है, न तीर्थ है और न कोई व्रत है।
(लोहितस्मृति ६५३ - ६५४)
सागका भोजन ही अमृतके समान है। उपवास ही उत्तम तपस्या है। संतोष ही मेरे लिये बहुत बड़ा भोग है।
कौड़ीका दान ही मुझ जैसे व्यक्तिके लिये
महादान है। परायी स्त्रियाँ माता और पराया धन मिट्टीके ढेले समान है।
परस्त्री सर्पिणीके समान भयंकर है। यही सब मेरा यज्ञ है । गुणनिधे ! इसी कारण मैं इस धनको नहीं ग्रहण करता। यह मैं सच - सच बता रहा हूँ । कीचड़ लग जानेपर उसे धोनेकी अपेक्षा दूरसे
उसका स्पर्श न करना ही अच्छा है ।
(पद्म० सृष्टि० ५० ६३–६६)
"क्योंकि श्रीराधाकी पूजा किये बिना मनुष्य श्रीकृष्णकी पूजाके लिये अनधिकारी माना जाता है, इसलिये वैष्णवमात्रका कर्तव्य है कि वे श्रीराधाकी पूजा अवश्य करें।
श्रीराधा श्रीकृष्णकी प्राणाधिका देवी हैं। कारण, भगवान् इनके अधीन रहते हैं। ये नित्य रासेश्वरी भगवान्के रासकी नित्य स्वामिनी हैं। इनके बिना भगवान् रह ही नहीं सकते। ये सम्पूर्ण कामनाओंको सिद्ध करती हैं, इसीसे ये 'राधा' नामसे कही जाती हैं।"
( श्रीदेवीभागवत ९ । ५० । १६ से १८)
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कन्या, छोटी बहन, पुत्रवधू, भाई की कन्या, भांजी, कनिष्ठ भ्राता की पत्नी, शिष्या, पुत्र की असवर्ण जातीय पत्नी, शरणापन्न नारी को कन्या कहते हैं। इनके प्रति स्नेह तथा शासन करे।
ये ९ प्रकार की कन्या तथा माता एवं जिन-जिन को माता एवं कन्या शब्द से पुकारा जाये, इन सबसे जो इनकी इच्छा से भी भोग करेगा, वह तत्क्षण पतित होगा।
म्लेच्छ नारी तथा यवन नारी से भोग करने वाला जाति से बहिष्कृत माना जाता है। इस घोर कलियुग में भी इनके साथ भोग करना दैवशाप से शापित होना है।
(बृहद्धर्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय ६, श्लोक ८८)
यमराज बोले-
जो पुरुष अपने वर्ण- धर्मसे विचलित नहीं होता, अपने सुहृद् और विपक्षियोंके प्रति समान भाव रखता है, किसीका द्रव्य हरण नहीं करता तथा किसी जीवकी हिंसा नहीं करता उस अत्यन्त रागादि-शून्य और निर्मलचित्त व्यक्तिको भगवान् विष्णुका भक्त जानो।
जिस निर्मलमतिका चित्त कलि-कल्मषरूप मलसे मलिन नहीं हुआ और जिसने अपने हृदयमें श्रीजनार्दनको बसाया हुआ है उस मनुष्यको भगवान्का अतीव भक्त समझो।
जो व्यक्ति निर्मल चित्त, मात्सर्यरहित, प्रशान्त, शुद्ध-चरित्र, समस्त जीवोंका सुहृद्, प्रिय और हितवादी तथा अभिमान एवं मायासे रहित होता है उसके हृदयमें भगवान् वासुदेव सर्वदा विराजमान रहते हैं।
उन सनातन भगवान्के हृदयमें विराजमान होनेपर पुरुष इस जगत्में सौम्यमूर्ति हो जाता है, जिस प्रकार नवीन शालवृक्ष अपने सौन्दर्यसे ही भीतर भरे हुए अति सुन्दर पार्थिव रसको बतला देता है।
जो दुष्टबुद्धि अपने परम सुहृद्, बन्धु-
बान्धव, स्त्री, पुत्र, कन्या, पिता तथा भृत्यवर्गके प्रति अर्थतृष्णा प्रकट करता है उस पापाचारीको भगवान्का भक्त मत समझो।
जो दुर्बुद्धि पुरुष असत्कर्मोंमें लगा रहता है, नीच पुरुषोंके आचार और उन्हींके संगमें उन्मत्त रहता है तथा नित्यप्रति पापमय कर्मबन्धनसे ही बँधता जाता है वह मनुष्यरूप पशु ही है; वह भगवान् वासुदेवका भक्त नहीं हो सकता
(श्रीविष्णुपुराण, ३/७/ श्लोक २० से)
भागवतके मतके अनुसार भक्तके लक्षण-
भगवान्में मन लगाकर (राग-द्वेषरहित हो) इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका भोग करता हुआ भी सारे विश्वको भगवान्की माया समझकर किसी भी वस्तुसे द्वेष या किसीकी आकांक्षा नहीं करनेवाला, हरिस्मरणमें संलग्न रहकर शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, इन्द्रियके सांसारिक धर्म, जन्म-मरण, भूख-प्यास, भय, तृष्णा, कामना आदिसे मोहित न होनेवाला, कर्मके बीजरूप कामनासे रहित चित्तवाला, एकमात्र वासुदेवपर निर्भर करनेवाला, जन्म-कर्म-वर्ण-आश्रम और जातिसे शरीरमें अहंभाव न करनेवाला, धन और शरीरके लिये अपने-परायेका भेदभाव न रखनेवाला, सब प्राणियोंमें एक आत्मदृष्टिवाला, शान्त, त्रिभुवनका राज्य मिलनेपर भी आधे पलके लिये हरि-चरण-सेवाका त्याग न करनेवाला और जिस हरिका नाम विवश-अवस्थामें अचानक मुखसे निकल जानेके कारण सब पाप नष्ट हो जाते हैं, उस हरिको प्रेमपाशमें बाँधकर निरन्तर अपने हृदयमें रखनेवाला
(भागवत ११ । २। ४८-५५) ।
सनत्कुमार, व्यास, शुकदेव, शाण्डिल्य, गर्ग, विष्णु, कौण्डिन्य, शेष, उद्धव, आरुणि, बलि, हनुमान् और विभीषणादि भक्तिके आचार्य माने गये हैं (नारद- भक्ति-सूत्र ८३) ।
इस भक्तिसाधनमें सबका अधिकार है, ब्राह्मण-चाण्डाल, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध सभीको भक्तिके द्वारा भगवान्के परमधामकी प्राप्ति सम्भव है। भगवान्का आश्रय देनेवाले अन्त्यज, स्त्री, वैश्य, शूद्र-सभी उत्तम गतिके अधिकारी हैं (गीता, ९ । ३२)
भक्तिमें जाति, विद्या, रूप, कुल, धन और क्रियाका भेद नहीं है (नारद-सूत्र ७२)।निन्दित योनितक सबका भक्तिमें अधिकार है। (शाण्डिल्य-सूत्र ७८)।
सभी देश और सभी जातिके मनुष्य भक्ति कर सकते हैं, क्योंकि भगवान् सबके हैं। चाण्डाल, पुक्कस आदि यदि हरि-चरण-सेवी हैं तो वे भी पूजनीय हैं (पद्मपुराण, स्वर्ग० २४ । १०) ।
भक्तिसे ही जीवन सफल हो सकता है, जो
भगवान्से विमुख हैं वे लोहारकी धौंकनीके समान व्यर्थ साँस लेकर जीते हैं (भागवत १० । ८७। १७)
सब प्राणियोंका निवासस्थान समझकर भगवान्की भक्ति करनेवाला भक्त मृत्युको तुच्छातितुच्छ समझकर उसके सिरपर पैर रखकर (वैकुण्ठमें) चला जाता है।
(भागवत १० । ८७। २७)
भक्तका कभी नाश नहीं होता (गीता ९/३१)।
(गीता प्रेस की पुस्तक भगवच्चर्चा पृष्ठ ४० से)
बड़ोंका आदर-सत्कार
प्राचीन धर्मग्रन्थोंको देखनेपर मालूम होता है कि माता-पिता आदि गुरुजनोंका आज्ञापालन, वन्दन और सेवा-पूजा करना- यह भी हिंदू-संस्कृतिका एक प्रधान अङ्ग है। इसका प्रसङ्ग श्रुति, स्मृति, गीता, रामायण, इतिहास, पुराण आदि ग्रन्थोंमें कूट- कूटकर भरा है। उन स्थानोंको पढ़नेसे रोमाञ्च होने लगता है, हृदय प्रफुल्लित हो जाता है।
श्रुति कहती है -
मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव ।
‘माताको देव (ईश्वर) माननेवाला हो । पिताको ईश्वर माननेवाला हो। आचार्यको ईश्वर माननेवाला हो। अतिथिको ईश्वर माननेवाला हो।'
(तैत्तिरीय० १ । ११ । २)
मनुजी कहते हैं-
पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताऽग्निर्दक्षिणः स्मृत
गुरुराहवनीयस्तु साऽग्नित्रेता गरीयसी ॥
‘पिता गार्हपत्य अग्नि, माता दक्षिणाग्नि, गुरु आहवनीय अग्नि ऐसा कहा है और वह अग्नित्रय अत्यन्त श्रेष्ठ है।'
(मनु० २ | २३१)
त एव हि त्रयो लोकास्त एव त्रय आश्रमाः ।
त एव हि त्रयो वेदास्त एवोक्तास्त्रयोऽग्नयः
'वे ही तीनों लोक, वे ही तीनों आश्रम, वे ही तीनों वेद और वे ही तीनों अग्नि कहे गये हैं।
(मनु० २ | २३०)
सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृताः ।
अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रिया:
‘जिसने इन तीनोंका आदर किया, उसने सब धर्मोंका आदर किया और जिसने इनका आदर नहीं किया, उसकी सब क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।'
(मनु० २ | २३४)
त्रिष्वेतेष्वितिकृत्यं हि पुरुषस्य समाप्यते ।
एष धर्मः परः साक्षादुपधर्मोऽन्य उच्यते ॥
‘क्योंकि इन तीनोंकी सेवासे पुरुषका सब कर्तव्य कर्म पूर्ण होता है। यही साक्षात् परम धर्म है, इसके अतिरिक्त अन्य सब धर्म 'उपधर्म' (गौण-धर्म) कहे जाते हैं।'
(मनु० २ । २३७)
गीता कहती है-
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥
‘देवता, ब्राह्मण, गुरु (माता, पिता, आचार्य आदि) और ज्ञानीजनोंका पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह
शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।'
( गीता १७। १४)
श्रीराम, श्रीलक्ष्मण, श्रीभरत, श्रीशत्रुघ्न आदि तो इसके विशेष आदर्श माने गये हैं। इस विषयमें उनके भाव बहुत ही विलक्षण, उच्चकोटिके और स्फूर्तिदायक हैं।
उद्धरण के लिए देखिए
अध्यात्मरामायणमें वन जाते समय श्रीराम माता कैकेयीसे कहते हैं-
पित्रर्थे जीवितं दास्ये पिबेयं विषमुल्बणम् ।
सीतां त्यक्ष्येऽथ कौसल्यां राज्यं चापि त्यजाम्यहम् ॥
'पिताजीके लिये मैं जीवन दे सकता हूँ, भयंकर विष पी सकता हूँ तथा सीता, कौसल्या और राज्यको भी छोड़ सकता हूँ।'
(अयोध्या० ३।५९-६०)
इसी प्रकार भरतका भी सेवा-पूजाका भाव बहुत विलक्षण है। वाल्मीकीय रामायणमें आता है, श्रीभरद्वाजजीने चित्रकूट जाते हुए भरत तथा उनके साथियोंका बहुत सत्कार-सम्मान किया। उन्होंने उन सबको सुख पहुँचानेके लिये अपनी शक्तिसे दिव्य विविध सामग्रियाँ और महल, राज्यासन आदि रच डाले; किंतु भरत उनमें आसक्त नहीं हुए। वे तो मनसे राज्यासनपर भगवान्को ही स्थापित समझकर उनकी पूजा और नमस्कार करते रहे-
तत्र राजासनं दिव्यं व्यजनं छत्रमेव च ।
भरतो मंत्रिभिः सार्धमभ्यवर्तत राजवत् ॥
आसनं पूजयामास रामायाभिप्रणम्य च ।
बालव्यजनमादाय न्यषीदत् सचिवासने ।
भरतने वहाँ दिव्य राजसिंहासन, चँवर और छत्र भी देखे तथा उनमें राजा (राम) की भावना करके मंत्रियोंके साथ उन सबकी प्रदक्षिणा की। सिंहासनपर श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हैं, ऐसी धारणा बनाकर उन्होंने श्रीरामको प्रणाम किया और उस सिंहासनकी भी पूजा की। फिर वे अपने हाथमें चँवर ले मन्त्रीके आसनपर जा बैठे।'
(वा० रा०, अयोध्या० ९१ । ३८-३९)
बादमें भी जब भरतजीको श्रीहनुमान्जीद्वारा भगवान्के अयोध्या लौटनेका शुभ संवाद प्राप्त हुआ, तब वे अत्यन्त हर्षके साथ भगवान्की चरणपादुकाओंको मस्तकपर रखकर भगवान्के दर्शनार्थ चल पड़े। वहाँका वर्णन करते हुए महर्षि वाल्मीकिजी लिखते हैं—
आर्यपादौ गृहीत्वा तु शिरसा धर्मकोविदः ॥
पाण्डुरं छत्रमादाय शुक्कुमाल्योपशोभितम्
शुक्ले च बालव्यजने राजार्हे हेमभूषिते ॥
प्राञ्जलिर्भरतो भूत्वा प्रहृष्टो राघवोन्मुखः ।
यथार्थेनार्घ्यपाद्याद्यैस्ततो राममपूजयत् ॥
ततो विमानाग्रगतं भरतो भ्रातरं तदा ।
ववन्दे प्रणतो रामं मेरुस्थमिव भास्करम् ॥
'धर्मज्ञ भरतने अपने बड़े भाई श्रीरामचन्द्रजीकी पादुकाएँ सिरपर रखकर अपने साथ श्वेत मालाओंसे सुशोभित सफेद रंगका छत्र तथा राजाओंके योग्य सोनेमें मढ़े हुए दो सफेद चँवर भी ले लिये। फिर प्रसन्नवदन भरतजी श्रीरामचन्द्रजीकी ओर दृष्टि लगाये हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर उन्होंने विधिपूर्वक अर्घ्य, पाद्य आदिसे उनकी पूजा की । उस समय भरत मेरुपर्वतपर स्थित-से दिखायी पड़नेवाले सूर्यकी तरह उस विमानमें स्थित भाई श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें नमस्कार करते हुए गिर गये ।'
(वा० रा०, युद्ध० १२७/ १८, १९, ३६, ३८)
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