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"गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।"
बाह्य जगत् की अनुकूलताओं प्रतिकूलताओं से प्रभावित हुए बिना परमात्मा से नित्य एकीकृत, सत् चित् आनन्द स्वरूप आत्मसत्ता की उत्कृष्टता का बोध और सचराचर जगत् में सर्वत्र सर्वशक्तिमान की नित्य विद्यमानता का अनुभव जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है।
The best achievement of life is to be constantly integrated with God, without being affected by the favorable or unfavorable conditions of the external world, to realize the excellence of the self in the form of true consciousness and bliss and to experience the presence of the Almighty everywhere.
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☀ प्रभु प्रेमी संघ ?
30 नवम्बर, 2023 (गुरुवार)
पूज्य सद्गुरुदेव आशीषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
? पूज्य "सद्गुरुदेव" जी ने कहा - "विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति ।।"
मानव असीमित सामर्थ्य का प्राणी है, किन्तु मानवीय अहंकार और कर्तापन का अभिमान जीवन की श्रेष्ठ सम्भावनाओं को धूमिल कर देता है। जो कुछ भी हमें प्राप्त है वह भगवान का अनुग्रह है। प्राप्त पदार्थों के प्रति प्रासादिक भाव रखने से विनयशीलता आती है और विनय के साथ पात्रता विकसित होती है। धर्म विद्या और सत्संग हममें पात्रता के विकास के साधन है। ईष्ट के प्रति आश्रित रहकर उनका अनुगमन कीजिए। यदि हम भगवान पर अनन्य आश्रित रहना सीख लें तो सारे कष्ट स्वतः ही दूर हो जाएँगे। भगवान का विधान समस्त प्राणियों के लिए सदैव सर्वथा हितकर व उद्धारक है .! समस्त आध्यात्मिक साधन अन्त:करण की परिशुद्धि एवं स्वयं में समाहित अनन्त ऊर्जा और सामर्थ्य के जागरण के लिये हैं, परन्तु भगवान साधन-साध्य नहीं, अपितु कृपा साध्य हैं। अतः अपने अंतःकरण को निष्काम व अहंकार से मुक्त रखें। अहंकार पर विजय सत्संग से ही प्राप्त हो सकती है, जिसके जीवन में धर्म आ जाए उसके जीवन में क्लेश नहीं हो सकता। कर्म का फल भुगतना ही पड़ता है, इसलिए सतर्क और सजग होकर कर्म करें। धन साधन है, उसे साध्य न बनाएँ। वर्तमान में अधिकतर लोग परेशान दिखते हैं कि उनके पास साधन बहुत कम हैं। बहुत से ऐसे भी हैं जो साधनों से लदे हुए हैं, लेकिन हमारे पास क्या है, कितना है, उसका महत्व नहीं है। महत्व इस बात का है कि अपने भीतर से हम कितने सुखी और प्रसन्न हैं। जीवन में शान्ति है कि नहीं। देश तेजी से विकास कर रहा है। प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है। इसके साथ-साथ प्रसन्नता भी बढ़नी चाहिए, भीतर का आनन्द बढ़ना चाहिए। लेकिन वही हम खो रहे हैं। धनवान बनना कोई बुरी बात नहीं है। श्रम कर के खूब धन कमाएँ, लेकिन यह अच्छी तरह से समझ लें कि धन से भौतिक सुख-साधन तो जुटाए जा सकते हैं, लेकिन वास्तविक सुख-शान्ति और आनन्द नहीं। भौतिकता में ही सुख होता तो ऐशो-आराम में रहने वाले कभी दु:खी नहीं होते? यह सीधा-सा सूत्र ध्यान में रखें तो अर्थ के पीछे जो अनर्थ हो रहा है, समाज में जो अंधी दौड़ चल रही है, शायद कम हो जाए ..!
? पूज्य "प्रभुश्री जी" ने कहा - सिद्धि का यही रहस्य है कि उत्कृष्ट लक्ष्य का चुनाव करना, फिर उसके अनुकूल ही उत्कृष्ट साधनों का उपयोग भी। साध्य और साधनों की एकरूपता पर ही सिद्धि का भवन खड़ा होता है। निस्वार्थ प्रेम प्रभु प्राप्ति का उत्तम मार्ग है। ईश्वर की साधना ही उनकी प्राप्ति का मार्ग है। भगवान साधन साध्य नहीं, कृपा साध्य हैं। इसलिए अंतःकरण की निर्मलता-पवित्रता और अकर्तापन का भाव सहेज कर रखें, जिससे कि भगवत्कृपा अनुभूत की जा सके। भगवान के पास इस भावना से न जाए कि हमें वहाँ से कुछ प्राप्त होगा, क्योंकि हम भगवान से व्यापार थोड़े न कर रहे हैं। भगवान को साधन नहीं, साध्य बनाएँ। समाज में दो प्रकार के लोग होते हैं, एक धर्म से धन को कमाते हैं। और दूसरे, धन से धर्म को कमाते हैं। धर्म को साधन मान लेना, संसार की यह मिथ्या दृष्टि है। धर्म को धंधा नहीं, अपितु धंधे को धर्म बनाएँ ! "पूज्य प्रभुश्री जी" ने कहा कि सम्यक दृष्टि की पहचान है कि दूसरों में केवल गुण देखें और अपने गुणों को ढँक लें एवं अपने अवगुण देखें। जिस दिन हमें अपने गुण दिखाई देने लग जाएँ उस दिन समझना कि हम पतन के गलियारे में खड़ें है, उस दिन से हमारा विकास रूक जायेगा ...।
? पूज्य "प्रभुश्री जी" ने कहा - इसमें कोई शंका नहीं है कि ईश्वर बिना किसी हेतु के कृपा करते हैं। हमारा अस्तित्व ही उनकी कृपा है। यदि गहराई से देखें तो ईश्वर ही जीव रूप में खेल खेल रहा है। एक पिता है एक बेटा। दोनों एक से हैं, पर बेटे को सर्वगुण सम्पन्न पिता तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि बेटे को सर्वगुण सम्पन्न पिता की तरह बनने में वर्षों लग जाते हैं। यही स्थिति जीव और ब्रह्म की है। बेटा उम्र के साथ बड़ा होकर निर्धारित नियमों को अपनाकर ही सर्वगुण सम्पन्न पिता जैसा बन जाता है, ठीक उसी प्रकार जीव भी निर्धारित नियमों को अपनाकर ईश्वर जैसा हो जाता है। साधन और साध्य की एकरूपता में ही सिद्धि-निहित है। जैसे साधन होंगे वैसा ही साध्य परिणाम में मिलेगा। लक्ष्य पर पहुँचना इस बात पर निर्भर करता है कि यात्री पथ को कैसे पूरा करते हैं। राह चलना ही लक्ष्य को प्राप्त करना है। भली प्रकार अध्ययन करना ही परीक्षा में सफलता का जनक है और दोनों मिलकर सिद्धि बनते हैं। साध्य की ओर बढ़ने की हमारी प्रगति ठीक उतनी ही होगी, जितने हमारे साधन शुद्ध होंगे। गीताकार ने भी साधना, क्रिया पर जोर देते हुए कहा है - ”स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः ...।” जो व्यक्ति सच्चाई के साथ अपना कार्य करता है उसे ही सिद्धि
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